बासमती नहीं, पटना राइस
कहते हैं कि बिहार के नालन्दा जिले के हिलसा इलाके से पिछली शताब्दी में पटना राइस के नाम से के चावल की किस्म लन्दन निर्यात होती थी और यह वहाँ के बाजारों में अच्छे खासे दामों पर बेची जाती थी। नालन्दा 1972 में पटना से अलग होकर नया जिला बना था। इसलिये बीते समय में हिलसा की गिनती पटना में ही होती थी। अंग्रेजों की पसन्दीदा चावल की इस किस्म के बारे में कहा जाता था कि उसकी माँग वहाँ बासमती से भी अधिक थी। 1960 में बिहार में बारिश समय से और दुरुस्त न हो पाने के कारण इसके उत्पादन पर काफी असर पड़ा था क्योंकि यहाँ सूखा पड़ गया था और इस धान की खेती बुरी तरह प्रभावित हुई थी। यहीं से धान की इस किस्म पर ग्रहण लगा और अब यह चर्चा से बाहर हो गया है।
अपने बाढ़-सुखाड़-अकाल के अध्ययन के क्रम में इस धान की इस किस्म का परिचय मिला जो कभी बासमती को बाजार में कड़ी टक्कर देती थी और अपने मित्रों की मदद से इसके बारे में जो कुछ भी जानकारी मिली उसे हम यहाँ दे रहे हैं।
पटना राइस के बारे में नालन्दा जिले के हिलसा अंचल के बेसमक गाँव के 72 वर्षीय किसान अवधेश प्रताप ने लेखक को बताया कि हमारे इलाके की पटना राइस के नाम से जाने वाली दो किस्में तुलसी मांझर और कारी बाक काफी मशहूर हुआ करती थीं और इससे तैयार हुआ चावल विदेशों में निर्यात हुआ करता था, ऐसा हमने सुना है। थोड़ी बहुत मात्रा में यह अभी भी विदेशों, खासकर इंगलैंड में जाता है। अब इन किस्मों की खेती काफी कम हो गयी है। इन किस्मों में कारी बाक की खुशबू थोड़ी ज्यादा होती है। इसका पौधा तुलसी मांझर के मुकाबले अधिक लम्बा होता है और इस चावल का दाना लम्बा और सफेद होता है यह चावल अभी भी इंग्लैंड जाता है और वहाँ सुनते हैं कि लोग पूछते हैं कि बेसमक वाला चावल अभी आया या नहीं?
ऐसी खबरें हम लोगों तक आती हैं। तुलसी मांझर की पत्तियाँ श्यामा तुलसी की तरह काली होती हैं और उसकी खुशबू में तुलसी की गन्ध का पुट रहता है। इन दोनों किस्मों की खासियत यह है कि दूसरे के घर में भी अगर यह चावल पक रहा हो तो आपके घर तक उसकी सुगन्ध पहुँच जाती है। 1960 के दशक में जब हरित क्रान्ति का बिगुल बजा तब धान की गुणवत्ता का महत्व उतना नहीं रह गया था जितना उसके उत्पादन की ओर सरकार और किसानों का गया। उन दिनों देश में भीषण अन्न संकट हो गया था।
धान की इन दोनों किस्मों की गिनती महीन चावल में की जाती थी, जिसका उत्पादन अपेक्षाकृत कम था मगर कीमत ज्यादा थी और यह शौकीन लोगों के लिये अधिक उपयोगी था, बनिस्बत साधारण या मध्यम किसान के लिये। इसके साथ एक दिक्कत यह हुई कि हरित क्रान्ति के साथ रासायनिक खाद और अलग किस्म के बीज की जरूरत पड़ी। जिसकी चोट पारम्परिक बीजों पर पड़ी। कृषि फार्म में तैयार किये गये नये बीजों का उत्पादन शुरू हुआ और किसानों को उन्हें खरीदना पड़ता था जबकि पहले पारम्परिक खेती में अपने खेत से तैयार हुए ही बीज ही काम में लाये जाते थे।
आधुनिक खेती में तुलसी मांझर या कारी बाक लगे खेतों में चूहों का प्रकोप बड़ी तेजी से बढ़ा, जिसका प्रभाव इसके उत्पादन पर पड़ा। उत्पादन के साथ एक और दिक्कत यह हुई कि जिस किसान ने रासायनिक खाद का प्रयोग किया उसके धान के खेतों के पौधे बड़े तेजी से बढ़े और उनकी ऊँचाई भी पहले से ज्यादा हो गयी। इस ऊँचाई की वजह से बहुत से पौधे बीच में मुड़ कर टूट जाते थे। जिसका परिणाम हुआ कि वह पौधा ही बेकार हो गया और किसानों की उम्मीदों पर पानी फिर जाता था। हालत यह हुई है कि अगर किसी किसान ने अपने 6-7 बीघे में साधारण धान लगाया तो उसके बीच में 8-10 कट्ठा अपने उपयोग के लिये यह महकने वाला धान अभी भी लगा लेता है। अगर इन दोनों किस्मों की उपज ठीक-ठाक हुई तो कुछ माल बाजार में भी आ जाता है, बस उतना ही।
यह चावल अधिकतर पुलाव और खीर बनाने और मेहमान नवाज़ी में उपयोग में लाया जाता है। इस चावल का उसिना चावल (Boiled Rice) नहीं बनता है क्योंकि उसिना बनाने की प्रक्रिया में इसकी खुशबू दूर तक फैलती है जिस पर चूहे आकृष्ट होते हैं और वह उसकी तलाश में स्रोत तक पहुँचने लगते हैं और उसे खा कर नष्ट कर देते हैं। इस चावल का दाम अभी भी बाजार में 125 रुपये प्रति किलोग्राम तक पहुँचा रहता है। तुलसी मांझर की नयी किस्म अब सुगन्धा नाम से मिलने लगी है। किसानों का कहना है कि सुगन्धा एक अच्छी किस्म का चावल है पर तुलसी मांझर और कारी बाक की बात कुछ और ही थी क्योंकि अपने बचपन में हमने वह चावल खूब खाया है। इस चावल को भी आमतौर पर 5 साल तक सुरक्षित रखा जा सकता है।
श्री अवधेश प्रताप