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कोसी नदी अपडेट - नहरों और नदियों के तटबन्धों के टूटने का वृतांत 1976, बड़हिया (अन्तिम किस्त)

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  • Dr Dinesh kumar Mishra
  • June-18-2023

बड़हिया के श्री कृष्ण मोहन सिंह से हुई मेरी बातचीत


उस समय यहां पक्के मकान तो बहुत कम थे। मिट्टी के गारे और पकाई गयी ईंटों के मकान जरूर थे। मिट्टी की दीवारों वाले और बांस फूस के भी मकान थे। क्योंकि यहां हर तरह के लोग रहते थे और उनके घर भी उसी के अनुरूप थे। क्योंकि उन तीन-चार दिनों में बारिश लगातार होती रही थी तो घर भी काफी गिरे थे। मिट्टी के घरों की दीवार ध्वस्त हो जायेगी तो घर तो नहीं बच पायेगा। जानवर भी बड़ी संख्या में मारे गये थे क्योंकि उनके रहने की जगह तो पानी ने दखल कर ली थी। इसलिये उनकी बड़ी क्षति हुई। आदमी तो दूसरी जगह से भाग कर डीह पर आ गये थे पर जानवरों को कहां रखते? इसलिये उनका तो बहुत नुकसान हुआ। कुछ बह-दह करके मर गये, कुछ लगातार बारिश में ठिठुर कर मर गये तो कुछ दब कर मरे। आमतौर पर लोगों ने खूंटे से बंधे जानवरों को खोल दिया था। खूंटे से बंधा जानवर मर जायेगा तो गौ हत्या लगेगी जिसका दोषी कोई नहीं होना चाहेगा। फिर भी जहां तक संभव हो सका उनको बचा कर रखा गया।

अब तो इतनी बस्ती बढ़ गयी है कि लोगों को भी रहने की कठिनाई हो गयी है यद्यपि हमारा गांव पूरब से पश्चिम खेत और दियारा लेकर 25 किलोमीटर लम्बा और उत्तर से दक्षिण 18 कि.मी. चौड़ा जरूर होगा। क्षेत्रफल के हिसाब से हमारा गांव भारत का सबसे बड़ा गांव है। आबादी की दृष्टि से सुनते हैं कि गहमर सबसे बड़ा गांव है पर क्षेत्रफल तो हमारे ही गाँव का सबसे ज्यादा है।

उस बाढ़ में सड़कें तो पी.डबल्यू. डी. समेत सारी की सारी डूब गयी थीं। किऊल से शेखपुरा और लखीसराय जाने वाली रेल लाइन टूट गयी थी। किउल से जमालपुर-भागलपुर जाने वाली लाइन भी कई स्थानों पर टूट गयी थी। हावड़ा-दिल्ली वाली रेल लाइन टूटने की खबर तो नहीं थी मगर लाइन पर पानी चढ़ने का भी समाचार हमें नहीं मिला था। ब्रांच लाइनें जरूर क्षतिग्रस्त हो गयी थीं। सरकार का हमारे यहां पहुंचने का कोई रास्ता ही नहीं था तो कहां से पहुंचती? दियारे के कुछ इलाकों और टाल क्षेत्र में कुछ स्थानों पर खाने के पैकेट हवाई जहाज/हेलिकॉप्टर से गिराये जाने का समाचार हम लोगों को मिला था। हमारे गाँव में तो कुछ भी नहीं गिराया गया था।

हमारे गांव में घर में रखा अनाज पानी के सम्पर्क में आने पर इतना फूल गया की दीवारों में दरार पड़ गयी। अनाज तो हमारा घरों में ही रहता है। उसे लेकर और कहां रखेंगे। हमारे गांव में फसल तो बहुत होती है पर उसे रखने की जगह तो सीमित ही है।

हम अनाज जहाँ रखते हैं उसे ठेक कहते हैं। लाखों एकड़ का हमारा रकबा है तो उसी के अनुसार हमारे यहाँ अनाज भी पैदा होता है। मगर उसमें पानी घुस जाये तो क्या होगा उसे आप खुद समझ सकते हैं। चने का आकार पानी में फूल कर कितना बड़ा हो जाता है? उन दिनों चना हमारी मुख्य फसल हुआ करती थी। कितने घरों का नुकसान तो चना फूलने पर दीवारों के फटने से हो गया था। बखारी और बेढ़ी में अनाज रखने का रिवाज हमारे यहां नहीं है। बखारी और बेढ़ी में तो अनाज तो वहां रखा जाता है जहां उपज कम होती है। हमारे यहाँ वह सब नहीं चलता है। हमारे अनाज किलो में नहीं क्विंटल में होता है उसके लिये वैसी ही व्यवस्था रखनी पड़ती है। बाकी जगहों के बड़े किसानों के यहां जितना अनाज होता है, उतना अनाज हमारे यहां छोटे किसान को हो जाता है। यह बात अलग है कि हमारे यहां एक ही फसल होती है जबकि दूसरी जगहों पर तीन-तीन फसलें भी हो जाती हैं। फिर भी हमारे यहां एक ही बार में बहुत अनाज हो जाता है। उन दिनों चना खूब होता था पर अब तो चना होता ही नहीं है। होता भी है तो कीड़े खा जाते हैं।

आसपास के दियारे के लोग बाढ़ के समय हमारे गांव में शरण लेने के लिये आ गये थे। दियारे के छोटे-छोटे गांवों के छोटे-छोटे घरों में जब पानी घुसने लगा तो वह सब बड़हिया में आने लगे थे। बड़हिया हाई स्कूल, धर्मशाला, रेलवे स्टेशन सभी लोगों से भरे हुए थे। सरकारी दफ्तरों, उनके स्टाफ क्वार्टरों, थाना और ब्लॉक सब में पानी भरा हुआ था। वह लोग भी हमारे गांव के सिवा और कहां जाते? हमारा बड़हिया का हाई स्कूल 1912 में बना था। हमारी पुरानी पीढ़ी शिक्षा की दृष्टि से जागरूक थी। इन दोनोँ स्कूलों के अलावा तत्कालीन सरकार ने एक ही दिन में बड़हिया, बेगूसराय और जमुई स्वीकृत किया था। इसमें 50 कमरे का छात्रावास, दो भाग में बड़ी-बड़ी बिल्डिंगें स्कूल की हैं जिनमें लोगों ने शरण ले रखी थी। आसमान से मिलने वाली मदद की हमारे गांव में जरूरत भी नहीं थी। बाहर से जो गरीब-गुर्बा हमारे गांव आये थे उनके लिये स्कूल में और स्टेशन पर खाने पीने की व्यवस्था हुई थी। यहां सर्वोदय के एक नेता जमुना बाबू हुआ करते थे वह पंजाब, हरियाणा से कुछ राहत सामग्री तथा कपड़ा वगैरह लेकर आये थे जिसका वितरण शरणार्थियों के बीच हुआ। उन लोगों के माध्यम से राहत वितरण का काम हुआ था जिसके पीछे जयप्रकाश नारायण और विनोबा भावे की भी कृपा थी।

आटा, कपड़ा, बिस्कुट, भूसा आदि भी धीरे-धीरे काफी मात्रा में आया था। सरकार तो खुद डूबी हुई थी वह हमारी क्या मदद करती। यहां के सब-इंजीनियर का दफ्तर, ब्लॉक, थाना, डाक बंगला आदि सब तो डूबा हुआ था। सरकार तो खुद हमारी शरण लिये हुए थी तो हमको क्या देती? उनके कर्मचारियों का भी तो परिवार था। उनके लिये हम लोगों ने व्यवस्था की थी वरना वह लोग कहाँ जाते?

बाढ़ के ए. एन कॉलेज परिसर, बाढ़ में सरकार और आर्मी का कैंप था, जहाँ से सरकार का राहत कार्यक्रम संचालित होता था। हम लोग तो यहां खुद मौजूद थे। सरकार आयेगी तो सड़क या रेल से आयेगी। यह दोनों साधन बन्द थे तो कहां से आ पाती?

श्री कृष्ण मोहन सिंह


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1972 का अकालपत्रकार समी अहमद के सौजन्य से 94 वर्षीया मोहतरमा जैनब बुआ जी, ग्राम पकरी बरावां (तब गया और वर्तमान नवादा जिला) से हुई मेरी बातची...
कोसी नदी अपडेट - बिहार बाढ़, सुखाड़ और अकाल, 1966 में बिहार विधानसभा में श्री हरिश्चंद्र झा का वक्तव्य

कोसी नदी अपडेट - बिहार बाढ़, सुखाड़ और अकाल, 1966 में बिहार विधानसभा में श्री हरिश्चंद्र झा का वक्तव्य

बिहार-बाढ़-सूखा-अकाल -1966पिछले साल कमला-बलान नदी के तटबन्ध 21 जगह टूटे थे और इस साल भी तमाम कोशिशों और पैसा बहाने के बाद भी यह तटबन्ध 4 स्थ...
कोसी नदी अपडेट - बिहार बाढ़, सुखाड़ और अकाल 1975, श्री कृष्ण कांत चौबे से हुई चर्चा के अंश

कोसी नदी अपडेट - बिहार बाढ़, सुखाड़ और अकाल 1975, श्री कृष्ण कांत चौबे से हुई चर्चा के अंश

बिहार-बाढ़-सूखा-अकाल-1975कृष्ण कान्त चौबे, सेवा निवृत्त प्रशासनिक अधिकारी, बिहार सरकार. से हुई मेरी बातचीत के कुछ अंश, जैसा उन्होंने बताया,1...

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