मंगरौनी और कछुआ गांव के आगे दरभंगा जिले के तारडीह प्रखंड के उजान गांव की कहानी
लेखक ने 1965 की कमला-बलान के पुल के दूसरी तरफ की बाढ़ के बारे में गांव उजान की एक शिक्षिका, जो दरभंगा के एक स्कूल में प्रधानाध्यापिका रह चुकी थीं, उनसे बात की।
उनका कहना था कि, बलान नदी पर झंझारपुर के पश्चिम दूसरे किनारे पर लोहना रोड स्टेशन पड़ता है और उनका गांव इस रेलवे स्टेशन से बहुत दूर नहीं है। उनका कहना था कि इस रेल पुल पर उस साल जब गाड़ी का आना-जाना बन्द हो गया तो दरभंगा से निर्मली जाने वाली रेल गाड़ियां लोहना रोड स्टेशन तक ही आती-जाती थीं। ऐसा बहुत दिनों तक होता रहा। एक समय तो ऐसा भी हुआ कि दरभंगा से आने वाली गाड़ियों को सकरी स्टेशन से ही वापस दरभंगा लौटा दिया जाता था क्योंकि लोहना रोड और मनीगाछी के बीच भी रेल लाइन पर पानी आ जाता था। सकरी और झंझारपुर के बीच में कमला की कई छाड़न धारायें (Abandoned Channels) हैं, जिनका पानी गाहे-बगाहे लोगों की आवा-जाही रोक देता है। हम लोग जब बच्चे थे तभी कमला-बलान का पानी कभी दरवाजे तक, कभी दलान तक और कभी-कभी तो घरों के अन्दर भी चला जाता था। ऐसी परिस्थिति में घर के बाहर बांस का मचान बनता था और उसी पर बच्चों के साथ लोग दिन-रात काटते थे।
आमतौर पर बाढ़ का मौसम अगस्त में होता था और उसका मुकाबला करने की तैयारी हर साल पहले से की जाती थी लेकिन उस साल बाढ़ जुलाई महीनें में ही आ गयी थी जो शादी-लगन का समय होता है। सरकार भी उसी तरह की तैयारी करके रखती थी और जुलाई में बाढ़ की तैयारी तो सरकार की भी नहीं हो पाती थी। इसके बावजूद अगर सब कुछ ठीक ही रहे तो जितनी नावें चाहिये उतनी की व्यवस्था तो कर पाना असम्भव सी बात थी क्योंकि बाढ़ समय से पहले आ गयी थी। सरकारी हलकों में तो तब तैयारी चल ही रही थी। ऐसे में जिन गांवों में कोई मल्लाह अगर हो तो उसकी नाव के भरोसे लोगों की जरूरतें पूरी होती हैं लेकिन अब वह अकेला क्या-क्या कर पाता और कहां-कहां कर पाता?
उन दिनों गैस चूल्हा तो था नहीं। देसी चूल्हा था और देसी इंधन था। जितनी बाढ़ यहां आ जाती है उसमें चूल्हा जला पाना मुश्किल था। तब खाने के लिया चूड़ा काम आता था। कूएं भी पानी में डूबे रहते थे। तब बाढ़ के पानी में ही चूड़ा फुलाया जाता था और गुड़-चीनी या दूध-दही के साथ खा लिया जाता था। बाढ़ का पानी आज की तरह इतना गन्दा भी नहीं होता था। उसी में चूड़ा फूलता था और वही पानी घड़े में रख कर मिट्टी बैठने दी जाती थी और वह पानी पीने के काम आ जाता था। पानी के रास्ते में रुकावट इतनी नहीं थी उन दिनों। कैसी भी बाढ़ हो तीन-चार दिनों में पानी निकल जाता था।
जहां हम लोग रहते थे वहीं दलान या बरामदे में जानवर भी रहते थे। उनको पानी में कैसे छोड़ देंगे? झिम्मर, बरगद, पीपल, आम की डाल तोड़ कर जानवरों को उसके पत्ते खिलाने पड़ जाते थे। जानवर मजबूरन खा भी लेते थे। तीन-चार दिन की तकलीफ उनको भी होती थी और उसके बाद परिस्थितियां सामान्य होने लगती थीं। सरकार जानवरों के लिये खैरात की व्यवस्था नहीं कर पाती थी, दावे चाहे जैसे भी किये जायें। आदमियों के लिये भी जो खाद्य सामग्री मिलती थी, उसकी भी गुणवत्ता अच्छी नहीं थी पर लोग मजबूर थे। ले लेते थे, क्या करते? जब तक पानी रहता था तब तक आम तौर पर चूल्हा नहीं जलता था पर चूल्हा जले ही नहीं ऐसा भी नहीं होता था। सबके घर में तो पानी नहीं -घुसा रहता था। गांव में ऊंचाई पर बसे कुछ घर थे जिनमें पानी नहीं घुसता था। उस घर में कई घरों के लोग जाकर अपने लिये जरूरी भोजन बना लेते थे।
बच्चों को दूध की समस्या जरूर होती थी। जिसकी मां को दूध होता था उसका काम तो चल जाता था पर जानवरों के साथ भी समस्या थी कि उन परिस्थितियों में उनको भी सामान्य मात्रा में चारा नहीं मिलता था। उनका दूध भी कम हो जायेगा, यह सब जानते हैं। तब बच्चों को मांड़ में गुड़ या चीनी मिला कर देना पड़ता था। मां तो कैसे भी बच्चे को पाल लेती है।
टट्टी-पेशाब की तो समस्या बहुत विकट थी। वह तो पानी में ही करना पड़ता। नावों में बाहर जाने का रिवाज हमारे यहां उतना नहीं था।
कमला-बलान का बांध रेल-पुल के उत्तर तक 1960 के आस-पास पूरा हुआ होगा पर इस बाढ़ में वह बहुत जगह टूट गया था। रिलीफ के अलावा सरकार से कुछ सहायता नहीं मिलती थी। उस समय बहुत गरीबी थी पर अब तो स्थिति बहुत संभल गयी है। अब भूखा तो कोई नहीं मरता है। तब हालत यह थी कि कटाई के बाद खेत में जो अनाज गिर जाता था उसको भी चुन कर लोग उठा लाते थे। जंगली साग-पात से भी गरीबों का पेट भरता था।
उन दिनों की 45 करोड़ जनता जितनी गरीब थी, उतनी आज की 147 करोड जनता गरीब नहीं है। 100 करोड़ आबादी बढ़ गयी फिर भी हालत इतनी बुरी नहीं है।
श्रीमती पीताम्बरी देवी