महाभारत का एक प्रसंग है कि युद्ध के बाद पितामह भीष्म सर-शैया पर लेटे हुए अपनी मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहे थे। उनके पास पांडव राजनीति सीखने के लिये नियमित रूप से आया करते थे और भीष्म उन्हें राज-धर्म के विभिन्न पहलुओं पर उपदेश दिया करते थे। एक दिन युधिष्ठिर ने भीष्म पितामह से उन विभिन्न प्रकार की संधियों के बारे में पूछा जो दो राजाओं के बीच में हो सकती है। भीष्म ने इस विषय पर बात करते हुए पांडवों को समुद्र और इसकी पत्नियों, नदियों, की एक कहानी सुनाई।
एक दिन समुद्र ने अपनी सभी पत्नियों को बुला कर कहा कि नदियों! मैंने देखा है कि बाढ़ के समय तुम अपने किनारों तक लबालब भर जाती हो और बड़े-बड़े पेड़ों को उनकी जड़ों और शाखों समेत उखाड़ कर अपने प्रवाह में ले आती हो पर तुम्हारे प्रवाह में कभी बेंत का पेड़ नहीं दिखाई पड़ता है। बेंत तो बहुत ही दुर्बल और साधारण सी वनस्पति है। इसकी अपनी कोई शक्ति नहीं होती और यह तुम्हारे किनारों पर उगता है फिर भी तुम इसे लेकर कभी मेरे पास नहीं आईं। तुम इसे तुच्छ समझ कर इसकी अवहेलना करती हो या इसने कभी तुम्हारा कोई उपकार किया है जिससे तुम उसका पक्ष लेती हो? मैं तुमसे यह सुनना चाहता हूं कि क्यों यह पेड़ तुम्हारे किनारे को नहीं छोड़ता और यहां समुद्र में नहीं आता है?
गंगा ने उत्तर दिया कि, "हे नदियों के स्वामी! बड़े वृक्ष अपने शक्ति के गर्व में हमारी तीव्रता के आगे झुकते नहीं हैं। अपनी अकड़ कर खड़े होने की प्रवृत्ति के कारण ही उनका विनाश होता है और उन्हें अपना स्थान छोड़ना पड़ता है परंतु बेंत ऐसा नहीं होता। बेंत हमारी तीव्र धारा के सामने नतमस्तक हो जाता है और जब नदी शांत हो जाती है तो वह पुन: अपने स्थान में स्थित हो जाता है। बेंत समय की गति को पहचानता है और उसी के अनुरूप व्यवहार करता है। वह हमेशा हमारी मुट्ठी में होता है और कभी कुछ चंचल व्यवहार नहीं करता उसमें अहंकार लेश मात्र की भी नहीं है और यही कारण है कि उसे स्थानच्युत नहीं होना पड़ता। वह पेड़, वह पौधे वह लताएं जो वायु अथवा नदियों की शक्ति के आगे नमन करती हैं और उनका वेग शांत होने पर ही अपना सिर उठाती हैं उनका कभी विनाश नहीं होता।"
भीष्म ने कहा कि जब विद्वान राजा यह सुनिश्चित कर लेता है कि उसका प्रतिद्वन्दी उससे ज्यादा बलवान है तब वह बेंत की तरह नम्र होकर बलवान के सामने झुक जाना चाहिए, ऐसा निर्णय लेता है। बुद्धिमता इसी में है।
भीष्म वैसे तो पांडवों को संधि सिखा रहे थे, पर उसी के साथ उन्होंने पर्यावरण संरक्षण का एक महत्वपूर्ण पाठ पढ़ाया तथा बेंत का उदाहरण देकर नदियों के साथ व्यवहार करने का शायद यह पहला संदेश दिया।
वैज्ञानिकों तथा इंजीनियरों ने प्रकृति को काबू कर लेने की ललक में जितनी समस्याओं का समाधान किया है, उससे ज्यादा उन्हें पैदा किया है। हम लोग हमेशा बाढ़ विरोधी गृह निर्माण, बाढ़ विरोधी फसलें, बाढ़ से सुरक्षा, फ्लड प्रूफिंग आदि शब्दों को बार-बार सुनते आए हैं। आखिर विज्ञान क्यों हर चीज को अपना दुश्मन समझता है? क्यों नहीं हम बाढ़ को बर्दाश्त करने वाले घर या फसलों के बारे में सोच पाते हैं? क्यों नहीं बाढ़ से बचाव की जगह बाढ़ के पानी को, जो एक समस्या के रूप में सामने आता है उसे एक संसाधन के रूप में बदलने की बात होती है? अपनी आवश्यकता भर पानी का संचय तथा अधिक पानी को सुरक्षापूर्वक निकासी कर देने पर ध्यान क्यों नही दिया जाता? यह सारी बातें हमारी परंपरा में शामिल थीं। पर अब परंपरा की परवाह किसको है? परंपरा की बात करते ही जो पहला प्रश्न पूछा जाता है वह यह है कि अब आप समाज को आदिमानव के युग में वापस ले जाना चाहते हैं? परंपरा की बात करना सांड़ को लाल कपड़ा दिखाने जैसा ही है। इस प्रयास की चर्चा कम से कम आज से शुरू होनी चाहिए न?