विवाह लग्न का अन्तिम दिन और बिहार की 1965 की बाढ़
बिहार के दरभंगा जिले के मधुबनी सब-डिविज़न में जुलाई, 1965 के पहले पखवाड़े में भीषण बाढ़ आयी थी। इस पर विधानसभा में विधायक सूरज नारायण सिंह 21 जुलाई, 1965 को एक ध्यानाकर्षण प्रस्ताव लेकर आये जिसमें कहा गया था कि कमला-बलान नदी का तटबन्ध का पूर्वी और पश्चिमी तटबन्ध 18 जगहों में बाढ़ के पानी के कारण टूट गया जिससे दर दरभंगा जिले के पूर्वी हिस्सों को अपार धन की क्षति हुई है। उस पर विचार के लिये मैं सदन का ध्यान आकर्षित करता हूं।
उन्होनें यह भी कहा कि इस महीने की 7-8 तारीख को मिथिला में लग्न की अन्तिम तिथि थी लेकिन बाढ़ की वजह से नव-विवाहित वर-वधू रेलवे स्टेशन पर खड़े रह गये और अपने गंतव्य स्थान पर नहीं पहुंच सके। वहां पर एक अजीब संकट उपस्थित हो गया था क्योंकि यातायात बन्द हो गया था। वहां के कमिश्नर ने कबूल किया है कि वहां पर इस साल बाढ़ अचानक आ गयी थी और इसलिये समय पर नावों का समुचित प्रबन्ध नहीं हो सका था। उस समय वहां नावों की बड़ी कमी हो गयी।
इस पर अध्यक्ष महोदय की स्वीकारोक्ति थी पर उनका यह भी कहना था कि नावें बाद में सेना द्वारा भिजवा दी गयी थीं। सूरज बाबू का फिर भी कहना था कि झंझारपुर थाने में अन्न का जो वितरण हुआ वह ऐसा था कि जानवर को भी खिलाया जाये तो हैजा हो जायेगा, इन्सान की नाक के सामने वह अन्न लाया भी नहीं जा सकता था। रिलीफ के नाम पर ऐसा अन्न बांटा गया।
9 तारीख को बाढ़ आयी और 10 तारीख को वहां एक मुट्ठी अन्न भी रिलीफ के रूप में नहीं मिला। महिया और मछैटा गांव में एक पाव भी चना नहीं गया था। 14 तारीख तक रिलीफ की कोई व्यवस्था नहीं हो सकी थी, मिट्टी का तेल नहीं मिला। सरकारी ऑफिसरों की असावधानी और भ्रष्टाचार के चलते दरभंगा जिले के लोग तबाह हैं।
1965 की इस बाढ़ के बारे में हमारी चर्चा दरभंगा के मधुबनी सब-डिवीजन (अब जिला) के मंगरौनी गाँव के 68 वर्षीय श्री बिनयानन्द झा से हुई। उनका कहना था कि,
8 जुलाई, 1965 को उनके बड़े चचेरे भाई नीलेंद्र मणि झा की शादी झंझारपुर प्रखंड के कछुआ गाँव में तय हुई थी। उस समय बरसात का मौसम शुरू हो चुका था और 7 जुलाई को हम लोग बारात लेकर अपने गाँव मंगरौनी से चल कर मधुबनी रेलवे स्टेशन आये। वहाँ से सकरी जाने के लिये रेलगाड़ी मिलती थी। 15-20 बाराती रहे होंगे जिसमें हम लोग कुछ बच्चे भी थे। हमारे लिये यह यात्रा बहुत ही कौतूहल पूर्ण थी। सकरी में दरभंगा-निर्मली गाड़ी मिलती थी जिसमें हमें तमुरिया जाना था और वहां से कछुआ गाँव, जहाँ बारात की शक्ल में हमको जाना था, वह बहुत दूर नहीं था। स्टेशन से तो बाराती पैदल ही वहाँ पहुँच गये। लड़की पक्ष के लोग स्वागत में जरूर रेलवे स्टेशन पर आ गये थे। भइया के ससुर जी का अच्छा खासा मकान था और बरसात को ध्यान में रखते हुए उन लोगों ने घर के बरामदे में बारातियों के रहने की व्यवस्था कर दी थी।
यहाँ तक की यात्रा में बादल भले ही घिरे रहे हों लेकिन बारिश नहीं हुई थी पर रात में विवाह प्रक्रिया शुरू होने के पहले से ही जोरों से पानी बरसना शुरू हुआ और यह क्रम विवाह सम्पन्न हो जाने के बाद भी सुबह तीन बजे तक चला होगा।
हमारे यहाँ रिवाज है कि विवाह के बाद बारात लौट जाती है पर दूल्हा कुछ समय के लिये ससुराल में ही रह जाता है। विवाह सम्पन्न हो जाने के बाद हम लोगों का कोई काम बचा नहीं था और तय कार्यक्रम के अनुसार हम लोग तमुरिया स्टेशन लौट आये और वहीं से वापसी यात्रा के लिये रेलगाड़ी पकड़ ली। यह 8 जुलाई की सुबह की बात है।
हमारी ट्रेन तमुरिया से तो अपने समय से निकली लेकिन जब वह झंझारपुर स्टेशन पहुँची तो उसे आगे बढ़ने से रोक दिया गया क्योंकि स्टेशन के बगल से ही कमला नदी बहती थी, जिसके पुल को पार करके आगे की यात्रा करनी थी। झंझारपुर रेलवे स्टेशन के स्टेशन मास्टर, उनके सहायक तथा पुलिस के अधिकारी वहाँ ऊहापोह की स्थिति में थे कि ट्रेन को आगे जाने दिया जाये या झंझारपुर में ही रोक दिया जाये क्योंकि सामने कमला-बलान नदी का पानी पुल पर रेल लाइन को छूने लगा था पर रेल लाइन अभी डूबी नहीं थी। विभाग सुनिश्चित कर लेना चाहता था कि रेलगाड़ी पुल पर से तभी आगे जायेगी जब यह तय हो जायेगा कि उसे पुल पर से गुजरने में कोई खतरा नहीं है। इसमें रेलवे इंजीनियरों की राय भी जरूर ली गयी होगी लेकिन हम लोग तो बच्चे थे। हमको क्या पता था कि गाड़ी क्यों रुकी हुई है? सब कुछ अनिश्चित था और गाड़ी कुछ घंटों तक स्टेशन पर खड़ी रही पर बाद में उसे आगे जाने की अनुमति मिल गयी।
गाड़ी चली तो तो कमला-बलान नदी का पुल तो स्टेशन के बगल में ही था। उन दिनों बहुत से पुलों में रेल लाइन के किनारे रेलिंग भी नहीं होती थी। इसके अलावा रेल के डिब्बे में खिड़कियों में ग्रिल भी नहीं होता था तो खिड़कियों से बाहर से सिर निकाल कर झाँकने की सुविधा थी। यह हम बच्चों के लिये बड़े कौतूहल का मौका था और हम लोग उन खिड़कियों के पास जाकर बाहर सिर निकालने की कोशिश करते थे और बड़े लोग हमें बाहर झाँकने से रोकते थे। यह हम बच्चों को अच्छा तो नहीं लगता था पर बड़े लोगों की अपनी मजबूरी थी कि वह हमें अपने शासन में रखें। जो भी सिर बाहर निकालता था उसे कोई न कोई खींच कर वापस अपनी जगह बैठा देता था।
पुल पर से ट्रेन के गुजरते समय बड़े लोग भी जोर-जोर से कोई हनुमान चालीसा, कोई दुर्गा पाठ, कोई हर-हर महादेव, कोई कमला माई को स्मरण करते हुए नारे लगाते थे। सब कभी अकेले और कभी समूह में जोर-जोर से आवाज करते थे और बच्चे सिर्फ ताकत भर "जय" बोल कर उनका साथ देते थे। ऐसा सिर्फ हमारे डिब्बे में ही नहीं लगभग पूरी ट्रेन में हो रहा था। हम लोगों को नदी के पानी को रेल लाइन से टकराते हुए देखने में मजा आ रहा था पर चाचा-मामा-फूफा लोग डाँटते थे कि उधर मत देखो, गिर जाओगे, डूब जाओगे, मर जाओगे, आदि-आदि। जैसे-तैसे गाड़ी सकरी पहुँची पर रास्ते में कहीं बारिश नहीं मिली। सकरी स्टेशन से ट्रेन बदल कर हम लोग मधुबनी आये और वहाँ से अपने घर।
बाद में पता लगा कि झंझारपुर में नदी को पार करने वाली हमारी ट्रेन आखिरी ट्रेन थी। उसके बाद बहुत दिनों तक रेलगाड़ी का चलना बन्द रहा था। ऐसा या तो सुरक्षा की दृष्टि से किया गया होगा या रेल लाइन ही पानी में डूब गयी होगी। गाड़ी चलाने के पहले पुल की भी मरम्मत करने में समय लगा ही होगा इसीलिये लाइन चालू नहीं हुई होगी।
क्रमशः
श्री बिनयानन्द झा