बाढ़ की सच्चाई के विषय में मैंने श्रीमती पद्मश्री उषा किरण खान जी से बहुत कुछ सीखा है। एक संस्मरण और, वह कहती हैं।
"एक विचित्र अनुभव है मेरा। हमारा गाँव मुसहरिया उस समय निर्माणाधीन कोसी तटबन्धों के बीच स्थित था। हम लोग अपने गाँव से निकल कर घोघरडीहा रेल गाड़ी पकड़ने के लिये जाया करते थे। यह स्टेशन दरभंगा जिले के झंझारपुर-निर्मली खंड के बीच पड़ता है। इस पूरे रास्ते में नाविकों को नदी की उलटी धारा में चलना पड़ता था। नाव खेकर इतनी दूरी तय करना अच्छे-अच्छे नाविकों के बस की बात भी नहीं होती। उनमें से एक आदमी रस्सी से नाव को बाँध कर किनारे से नाव को खींचते हुए ले जाता है, दूसरा नाविक नाव को लग्गे से सम्हालता है। नदी बाँध से लग कर ही बहती थी इसलिये उसे कोसी के आधे बने तटबन्ध पर से खींचना आसान होता था। मैं अपने ससुर जी के साथ एक बार कई छोटे-छोटे बच्चों को लेकर गाँव से रेलवे स्टेशन को चली जाती थी। मैं उस वक़्त पटना में पढ़ती थी और कुछ बच्चे दरभंगा में पढ़ते थे। घोघरडीहा तक की यात्रा पूरी नहीं हो पाई और रास्ते में अन्धेरा हो गया। उलटी धारा में चलती नाव में वैसे भी समय का अन्दाज़ा नहीं हो पाता।
अचानक जो आदमी बाँध पर रस्सी से नाव को खींच रहा था, उसके पाँव में कोई चीज़ चुभ गयी और वह जोर से चिल्लाने लगा कि उसे किसी चीज़ ने काट लिया है। इधर से ससुर जी चिल्लाये कि किसी भी हालत में रस्सी मत छोड़ना। अगर वह रस्सी छोड़ देता तो नाव को काबू में रख पाना आसान नहीं होता। उनके पास एक पाँच सेल की टॉर्च थी, जिसे दिखा कर उन्होनें बाँध वाले मल्लाह से कहा कि नाव को बाँध से लगाओ और हम जाकर देखते हैं कि क्या हुआ है। बाँध पर जाकर ससुर जी को पता लगा कि उसे काँटा चुभा था। तब यह तय हुआ कि नाव को किसी पेड़ से बाँध दिया जाए और क्योंकि अब अँधेरा गहरा रहा था, इसलिये आगे न जाकर यहीं कहीं रात बितानी पड़ेगी। अब आगे जाना सम्भव नहीं हो पायेगा।
उस बियाबान में एक घर ससुरजी को दिखाई पडा जहाँ दीया जल रहा था। उन्होनें अन्दाजा किया कि वहाँ रात में रुकने की व्यवस्था हो सकती है। ससुर जी उस ढिबरी की रोशनी की ओर अपनी टॉर्च की मदद से आगे बढे और हम सभी लोग बच्चे-कुच्चों के साथ बाँध पर ही रह गए और उनके लौटने की प्रतीक्षा करने लगे। जहाँ वह पहुँचे वह कबीरपंथी लोगों का मठ था। उन्होनें मठ वालों से कहा कि हम लोग दक्षिण से आ रहे हैं और घोघरडीहा जाना है। साथ में बच्चे हैं, रात में रहने का कोई इन्तजाम हो जाता तो बड़ा अच्छा होता। उन लोगों ने ससुर जी से उनका परिचय पूछा तब उन्होनें गाँव का नाम बताया– मुसहरिया। उन लोगों ने दूसरा सवाल किया कि मुसहरिया दो हैं। एक मुसहरिया द्वारिका खान का है और दूसरा बहादुर खान का, आप किस मुसहरिया के हैं? ससुर जी का जवाब था कि हम द्वारिका खान वाले मुसहरिया के हैं जबकि उनका खुद का नाम बहादुर खान था। उन्होनें अपनी पहचान जाहिर नहीं की।
तब रात भर रहने का इन्तजाम हुआ। उन लोगों ने एक चौकी और एक खाट का प्रबन्ध कर दिया। उस चौकी पर बच्चों के साथ मैं और खाट पर ससुर जी। अब नींद किसको आये क्योंकि मच्छर बहुत थे, बच्चे परेशान थे। उन लोगों ने पूछा कि कुछ पाइयेगा? तब ससुर जी ने बताया कि हम लोग खा-पी चुके हैं। अन्धेरा था सो रुक गये। जैसे ही सुबह हुई हम लोग वापस नाव पर आ गये।
जिस मल्लाह के पैर में काँटा चुभ गया था, उसे बाद में बिरनी (ततैया) ने भी काट लिया। वह एक अलग काण्ड हुआ। वह अगर रस्सी छोड़ देता तो हम लोगों का क्या होता यह सोच कर डर लगता है। जैसे-तैसे हम लोग घोघरडिहा पहुँचे और फिर दरभंगा आए। वह यात्रा अविस्मरणीय थी।"
स्मृतिशेष श्रीमती पद्मश्री उषा किरण खान