22 सितंबर, 1954 के दिन बिहार विधानसभा में तत्कालीन वित्त मंत्री अनुग्रह नारायण सिंह का बिहार अप्रोप्रीऐशन बिल पर भाषण चल रहा था, जिसमें उन्होनें कहा था कि, “अभी दो-तीन वर्षों से इसकी जाँच हो रही थी कि कोसी नदी पर एक बाँध बाँधा जाये जो कि 700 फुट ऊँचा हो और इस जाँच पर बहुत सा रुपया खर्च हुआ। तब मालूम हुआ कि इसमें 26 मील (42 किलोमीटर) की एक झील बनेगी जिसमें कोसी का पानी जमा होगा और पानी के जमा होने से बाढ़ नहीं आएगी। इसके अलावा भी कई छोटी-छोटी झीलें होंगी और उनमें भी पानी जमा किया जाएगा। लेकिन पीछे इस बात पर विचार किया गया कि अगर वह 700 फुट का बाँध फट जाए तो जो पानी उसमें जमा है उससे सारा बिहार और बंगाल बह जायेगा और सारा इलाका तबाह और बरबाद हो जायेगा।
कुछ इसी तरह की बात लोकसभा में नरहरि विष्णु गाडगिल ने भी 11 सितंबर, 1954 को कही थी। उनका कहना था कि, ‘एक समय मुझे भी कोसी प्रोजेक्ट का काम-धाम देखना पड़ा था। वहाँ जब जमीन के अंदर छेद करके प्रयोग किये गये तब पता लगा कि वह पूरा का पूरा इलाका ऐसा है, जिस पर भूकंप के झटके लगते हैं। तब हम लोगों को सोचना पड़ा कि वहां जलाशय बने या कोई दूसरी व्यवस्था की जाए। या फिर जैसा कि पिछले हफ्ते अल्जीयर्स में हुआ, वैसा दुबारा भी होगा। वहां भूकंप की वजह से या तो बाँध में दरार पड़ गई या वह ढह गये और कई बाँधों का तो नामो-निशान तक मिट गया।’
इन दोनों विचारधाराओं ने उस समय बहस को बराहक्षेत्र बाँध से हटा कर कोसी पर तटबंधों की ओर मोड दिया था। अनुग्रह बाबू ने अपने बयान में कहा था कि अभी दो-तीन वर्षों से इसकी जाँच हो रही थी। यह भी सच नहीं है। यह जाँच 1937 से चल रही थी और इसका जिक्र पटना की प्रसिद्ध बाढ़ पर जो सेमिनार सिन्हा लाइब्रेरी में हुई थी उसमें आया था। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने उस सेमिनार में क्या कहा था उस पर आगे कभी चर्चा करेंगें और उनके राष्ट्रपति बन जाने के बाद 1954 में उन्हें तटबंधों की हिमायत में क्या-क्या कहना पड़ा था उस पर भी बात करेंगें।