सहरसा में कोसी के किनारे जबरदस्त सूखा पड़ जाये, यह सुनने में असंभव सा लगता है। पर यह हुआ था और वह इसलिए भी हुआ क्योंकि 1972 में भी वर्षा कुछ ठीक-ठाक नहीं हुई थी। इस घटना के बारे में हमें बताया श्री गोपाल कृष्ण झा (ग्राम/ पो.बराही भाया सुखपुर, सहरसा 852130) ने।
उनका कहना था कि, 1973 के पूर्वार्द्ध में सूखा तो प्रबल था और सरकार को लोगों की मदद के लिये सरकारी गल्ले की दुकानों में अतिरिक्त अनाज भेजना पड़ा था, जिसमें पहले बाजरा आना शुरू हुआ। लोगों को बाजरा खाने की आदत नहीं थी पर खाना पड़ा। उसकी भी आपूर्ति नियमित नहीं थी और वैसे भी सरकार कितना अनाज देती? जितना अनाज मिलता भी था वह तो यूनिट के हिसाब से मिलता था और वह परिवार को पूरा नहीं पड़ता था। हमारे खेतों में तो कोसी के बालू का जमाव बहुत होता था और ऐसा खेत बहुत पानी सोखता है। बोरिंग से भी एक घंटे में एक कट्ठा जमीन की सिंचाई हो पाती थी। अनाज की किल्लत तो बहुत अधिक हो गयी थी। उस समय सरकार का जो भी काम होता था चाहे वह प्रशासन से हो या कोसी प्रोजेक्ट की तरफ से हो उसमें मजदूरी के बदले अनाज ही मिलता था। ऐसी एक योजना तो हमारे गाँव में भी खुली थी।
1973 में अधिकांश भाग में सूखे की वजह से फसल की स्थिति कुछ अच्छी नहीं थी और 1974 का पूर्वार्द्ध उसी का विस्तार था। फिर 1974 में बाढ़ आई और हम लोगों के लिये सब कुछ सामान्य हो गया। 1973-74 का समय हमारे लिये बड़ा चुनौती पूर्ण था। मजदूरी में कुछ मात्रा में गेहूँ मिलता था और बाजरा पूरा मिलता था। चावल नहीं मिलता था जबकि हम लोग चावल खाना ही ज्यादा पसन्द करते हैं। नगद पैसा भी मिलता था लेकिन वह बहुत कम था। दिक्कत यह थी की दुकानों में नगद पैसा देकर भी अनाज नहीं मिल पाता था।
यह भी एक भ्रम है कि हम लोगों में कुदाल फावड़ा लेकर उच्च वर्ग के लोग काम करने के लिये खेत में नहीं उतरते हैं। उस समय हालत ऐसी हो गयी थी कि सभी तरह के लोगों को अनाज के लिये सरकारी काम में उतरना पड़ गया था। सारे उच्च वर्ग के लोग तो सम्पन्न नहीं होते। उसमें भी जो गरीब हैं, उसे तो काम करना ही था पर यह भी सच है कि ऐसे लोगों की संख्या कम थी जिनके परिवार में कोई नौकरी पेशा सदस्य न हो या जो किसी दूसरे तरीके से व्यापार आदि में संलग्न होकर धनोपार्जन न कर पा रहे हों उनके ऊपर जब पेट का सवाल आयेगा तब तो जो भी करना पड़े वास काम करना ही पड़ेगा। सच यह भी था कि अधिकांश लोग मजदूर वर्ग के ही थे। कुल आबादी में से केवल बीस प्रतिशत लोग ही ऐसे रहे होंगे जिनके पास मजदूरी कि अलावा कोई दूसरा विकल्प रहा होगा।
इतना जरूर था कि शादी-ब्याह पर इस प्रकार की विपत्ति के बावजूद उस इलाके में कोई फर्क नहीं पड़ा था इसका एक कारण यह भी था कि तब किसी प्रकार का दिखावा इन उत्सवों में नहीं होता था। इसलिये परिवारिक उत्सव होते ही रहते थे। इसे सभी लोग मिल कर सामाजिक दायित्व के तौर पर पूरा करते थे। उस वक्त उतने बाराती कहाँ आते थे? बहुत हुआ तो 19 वरना 11, 13 या 15। दो शाम के अन्दर सारा अनुष्ठान पूरा हो जाता था। बहुत हुआ तो 20 बाराती आते थे जो दूसरे दिन शाम को भोजन के बाद विदा हो जाते थे। बिरले ही कोई आदमी तीसरे दिन सुबह तक टिकता था।
बाजरा खाने की तो हम लोगों को आदत नहीं थी पर यही सोच कर कि दुर्दिन में महाराणा प्रताप को घास की रोटी खानी पड़ी थी तो क्या हम लोग बाजरा भी नहीं खा सकते? जो भूखा आदमी है उसके पास विकल्प नहीं होता। उसे जो मिलेगा वही खायेगा। बाजरा, सावाँ, शकरकन्द अखाद्य तो नहीं है। एक दिन की मजदूरी में दो से ढाई रुपये जरूर मिल जाते थे। अगर मुझे ठीक याद है तो 65 पैसे प्रति किलो के हिसाब से बाजरा मिलता था। धीरे-धीरे लोग बाजरा चाव से खाने लगे थे।
श्री गोपाल कृष्ण झा