भागलपुर जिले के जगदीशपुर प्रखण्ड के बैजानी गाँव का जिक्र बाढ़ और सूखे के सन्दर्भ में अक्सर प्रमुखता से आता है। 1960 में यहाँ सूखा पड़ा हुआ था और चान्दन नदी के पानी को लेकर ग्रामीणों में काफी आक्रोश था। बैजानी के ग्रामीणों ने चान्दन नदी की खलखलिया धार को सुधारने के लिए चाँदपुर के निकट एक छिटका बनाने और बैजानी के पास रकसा नदी तक उस पानी को पहुँचाने के लिये प्रशासन को कई बार दरखास्त दी थी।
चान्दन नदी का 80 प्रतिशत पानी हाहा धार में बह जाया करता था और खलखलिया धार जो चाँदपुर के पास चान्दन नदी से फूटती थी उसमें केवल 20 प्रतिशत पानी ही जाता था और वह भी केवल बाढ़ आने पर। यह बात जब भागलपुर के कलक्टर को बतायी गयी तो उसने आश्चर्य प्रकट किया कि जब इतनी सम्भावनायें हैं तो यह बात पहले प्रशासन को क्यों नहीं बतायी गयी? उन्होनें आश्वासन दिया था कि वह अपने स्तर से इस मामले में जरूर कुछ करेंगें। इस पूरी समस्या के बारे में आगे की कहानी बैजानी गाँव के ही श्री महाऋषि पाण्डेय ने हमें काफी कुछ बताया जिसे हम यहाँ उन्हीं के शब्दों में उद्धृत कर रहे हैं। उनका कहना था कि,
1960 में मैं 11 साल का रहा होऊँगा और जगदीशपुर के गाँव के स्कूल में कक्षा आठ में पढ़ता था। यह स्कूल गाँव से कोई 6 -7 किलोमीटर दूर है और मैं वहाँ बस से जाया करता था। जहाँ तक मुझे याद है उस साल बारिश देर से शुरू हुई थी उसके बाद जो बारिश आयी वह भयानक रूप से आयी। यहाँ हमारे पास में ही चान्दन नदी की ही दो शाखायें बहती हैं। इनमें से एक छोटी है और दूसरी अपेक्षाकृत बड़ी है। यह दोनों शाखायें पुरैनी बाजार के पास बिल्कुल सटे-सटे बहती हैं।
पुरैनी बाजार के आधा किलोमीटर दक्षिण बड़ी शाखा बहती है और उसके बाद जो सड़क है उसका ढलान बहुत ज्यादा हो जाता है। उस साल जगदीशपुर में उस नदी में बाढ़ में काफी पानी आ गया था। हम लोग उस दिन जाते समय तो स्कूल चले गये पर लौटते समय भारी मुश्किल में पड़े। उस समय बाबू सियाराम सिंह एक स्थानीय नेता थे। उनकी कार में बैठ कर हम लोग कमर भर पानी में घिरते हुए घर वापस आये। उसके बाद नदी में इतना पानी आ गया कि वह रास्ता ही बन्द हो गया।
पुराने समय में जब जमीन्दारी प्रथा थी तब जमीन्दार अपने इलाके के खेतों को पानी पहुँचाने का इन्तजाम कर देते थे और उसका वह टैक्स भी लेते थे। धीरे-धीरे जमीन्दारों की आपस में सम्पत्ति का बँटवारा लड़कों-बच्चों के बीच होता गया लेकिन वह लोग सिंचाई की व्यवस्था को कायम रखने का प्रयास करते थे। उस समय जंघा बाँधने का काम होता था जिसमें डेढ़-दो सौ मजदूर काम करने के लिये चले आते थे।
कभी-कभी गाँव के हर किसान परिवार एक-एक या दो-दो मजदूर दे देता था तो यह संख्या एक हजार तक भी पहुँच जाती थी। इन्हीं मजदूरों के साथ दो-तीन बोरा चूड़ा एक-आध बोरा चना भी खाने के लिये आ जाता था। कुछ गुड़ भी मँगवा लिया जाता था। चने को पानी में डाल दिया जाता था। इस तरह से मजदूरों को गुड़ और अंकुरित चना जो फूल गया वही खाने को दिया जाता था।
यह मजदूर पानी के स्रोत के सामने जो बालू जमा होकर कर उसके प्रवाह को रोकता था उसे हटाने का काम करते थे जिससे पानी की धारा तेज होने लगती थी और उसे अपनी जरूरत के हिसाब से जिधर ले लाना हो वह लोग ले आते थे। धीरे-धीरे किसानों को खेती में लाभ होना कम हुआ और किसानों में भी पलायन शुरू हो गया। अब किसान अगर हट जायेगा तो मजदूर अपने आप हट जायेगा क्योंकि मजदूर किसान पर ही निर्भर करता है।
फसल तैयार हो जाने के बाद पहली प्राप्ति मजदूर को होती है और उसके बाद यह किसान उसको खाता है। इसके साथ सरकार भी उदासीन हो गयी। उसके बाद सरकारी अधिकारियों ने लगातार जमा होते रहने वाले बालू की न सिर्फ फिक्र करना बन्द कर दिया बल्कि उन्होंने उस बालू वाली जमीन का दाखिल- खारिज करके दूसरे लोगों को देना शुरू कर दिया और बालू का हटना बन्द हो गया। तब नदी धीरे-धीरे सकरी होती चली गयी, बालू भरता गया और किसान मरता गया। इस पूरी प्रक्रिया का दस्तावेजी सबूत भी उपलब्ध है। 1963 में यहाँ चकबन्दी हुई थी। उसके पहले जो सर्वे हुआ था उसके नक्शे को अगर आप देखें यह सारा बदलाव आपकी समझ में आ जायेगा।
इसका दुष्प्रभाव नदी पर पड़ा और वह लगभग गायब ही हो गयी। मेरी बात एक अंचलाधिकारी से हुई थी तो उनका कहना था कि ऐसा कानून था कि अगर जमीन का भूगोल इस तरह बदल जाये तो वह उसकी बन्दोबस्ती माँगने वालों के नाम कर सकता है। यह कितना सच है यह मैं नहीं जानता पर ऐसा हुआ जरूर था।
आज भी स्थिति यह है कि आप अगर बांका से अमरपुर की तरफ जायें तो इस रास्ते में एक ओढ़नी नदी पड़ती है। हमारे नाना अमरपुर के इलाके के जमीन्दार थे जो कहते थे कि ओढ़नी नदी में एक बार हाथी बह गया था। तब उस नदी पर पुल नहीं था। आज उस नदी की हालत यह है कि जब मैं अमरपुर से भागलपुर आ रहा था तो मैंने देखा कि ओढ़नी नदी पर जो पुल बनाया गया है उसकी तलहटी और नदी के मौजूदा लेवल के बीच में केवल दस फुट का ही अन्तर बचा है।
मैं नहीं जानता कि बालू माफिया ने उसे इधर से उसे साफ कर दिया या नहीं? भागलपुर से बांका पहुँचने के ठीक पहले चान्दन नदी पड़ती है। पहले उस पर एक लेन का सड़क पुल था जिसका अब आधुनिकीकरण करके डबल लेन का कर दिया गया है पर सुना है कि वहाँ भी बालू का खनन जबरदस्त तरीके से जारी है।
पिछले 40 साल का अगर आप वर्षापात देखें तो पायेंगे कि बस दो एक साल ही वर्षा पात कम रहा होगा। अन्तर वर्षा के समय में पड़ा है जो कभी समय से पहले हुई तो कभी समय के बाद और हथिया नक्षत्र का पानी समय से और ठीक से नहीं हुआ तो फसल पूरी तरह से प्रभावित होती है। कहा भी है कि,
"आते आदर ना दिये जाते दिये न हस्त,
इन बिन दोनों फीको, पाहुन और गृहस्थ।"
यानि शुरू-शुरू में आर्द्रा नक्षत्र और जाते-जाते हस्त नक्षत्र में अगर पानी नहीं बरसा तो घर आने वाले अतिथि और गृहस्थ, दोनों की ही स्थिति संशयात्मक हो जाती है।
((श्री महाऋषि पाण्डेय))