(बिहार बाढ़-सूखा-अकाल)
श्री फूलेश्वर पासवान, ग्राम-अनुमंडल मझौल, जिला बेगूसराय से हुई मेरी बातचीत के कुछ अंश..
फूलेश्वर पासवान जी (70) बताते हैं कि हमारे गाँव से आधा कोस पश्चिम मेहरा शाहपुर गाँव से होकर बूढ़ी गंडक नदी आती है और पबड़ा, कारीचक, सिउरी और पहसारा की ओर निकल जाती है। आधा गाँव इस नदी के पश्चिम में है और आगे चल कर यह नदी दक्षिण की ओर से बहती हुई आगे बढ़ जाती है। गाँव के उत्तर में काबर ताल है और वहीं जयमंगला गढ़ का प्रसिद्ध मन्दिर है जो पाल वंश के समय से है। वहीं एक मन्दिर और है जो जीर्ण-शीर्ण अवस्था में है। हम लोगों के बचपन के समय कहा जाता था कि इस काबर ताल की परिधि 14 कोस की है। यह ताल गढ़पुरा, सकरवासा, नारायणपुर, बिक्रमपुर, पहसारा तक फैला हुआ था। ताल तो 1953-54 से ही सूखने लगा था क्योंकि उसके पानी को बूढ़ी गंडक में गिराने का कार्यक्रम तभी से शुरू कर दिया गया था।
पहले इस ताल को सहनी (मछुआरा जाति) लोग देखते थे पर पानी की निकासी करने वाली नहर बन जाने के बाद इसमें खेती होने लगी और मोटे किस्म का देसरिया, बरोगर, कसहन, सिंगरा, पनझाली आदि जैसे धान इसमें लगाये जाने लगे जो गहरे पानी में होते थे और उसकी कटनी नाव पर बैठ कर होती थी। निकासी की नहर बन जाने के बाद फसल पद्धति में गुणात्मक परिवर्तन आया। ताल का पानी अब पहले जितना नहीं रह पाता था। पिछले दो साल से काबर ताल में पर्याप्त मायत्र में पानी है और अब खेती में कठिनाई हो रही है।
आजकल काबर ताल और जयमंगला गढ़ के बीच का फासला 200 मीटर का बचा होगा। इस साल अगर बारिश का पानी उसमें आ गया हो तो अलग बात है वरना अब वह सूखा ही रहता है और अब वहाँ धान नहीं होता है, गेहूँ होता है। ताल को नहर द्वारा जोड़ने का सीधा असर सहनी लोगों पर पडा जो बेरोजगार हो गये। फिर धान भी चला गया और अब रब्बी पर यहाँ के लोगों का जीवन चलता है। वह भी कभी हुई कभी नहीं हुई। काम की खोज में बाहर जाना तभी से शुरू हो गया था जबसे नहर द्वारा पानी की निकासी शुरू हुई।
1965 में हमारे गाँव में एक बड़ी ही हृदय विदारक घटना हुई थी। गाँव में एक बड़े आदमी की जमीन थी जो कि हम लोगों के पासवान टोले से लगती थी। उस जमीन में एक कुआं था जो हमारे टोले और उनके टोले दोनों के काम आता था। उस जमीन के एक बहुत छोटे से भाग पर, कोई 7-8 धुर जमीन, हमारी जात के एक आदमी की पड़ती थी। उस जमीन पर एक ही घर हम लोगों का था। इस घर और ज़मीन को लेकर आपस में कुछ तनातनी हुई और 1965 की राम नवमी के दिन ही उस अकेले घर के साथ-साथ छत्तीस घरों में दबंग लोगों ने आग लगा दी और एक लड़का राम बिलास पासवान जो हमारी ही उम्र का था उसके पेट में भाला भोंक दिया और वह मर गया।
उस आग का असर यह हुआ कि हम लोगों के सैंतीस घर उस आग में जल गये। हमारे ही गाँव के एक बड़े समाजवादी नेता एम.एल.ए. भी थे और हम सभी लोगों के नेता थे। जहाँ आग लगी वहाँ से उनका घर केवल डेढ़ सौ मीटर पर घर रहा होगा मगर वो हम लोगों का हाल तक पूछने नहीं आये। हो सकता है उनके ऊपर बाकी ग्रामीणों का कुछ दबाव रहा हो। मुकद्दमा हुआ मगर वह गलत दायर हुआ। जिसका घर जला वह मुद्दई नहीं बनाया गया और न ही जिसके घर का आदमी मरा वह मुद्दई बनाया गया। इसी सब के चलते मुकद्दमा कमज़ोर पड़ गया। हमें कोई मुआवजा नहीं मिला या यूँ कहिये कि मिलने नहीं दिया गया। मुकद्दमा तो लम्बे समय चला और इस बीच सबके घर बन गये। वैसे भी उस समय घर तो बाँस और फूस के ही बनते थे। इसलिये कोई ख़ास दिक्कत नहीं हुई। इस आगजनी को सब लोगों ने देखा मगर मदद किसी ने नहीं की। उसके बाद से हालात कभी सुधरे नहीं।
हमारे दूर के रिश्ते की एक बहन का लड़का यहीं बाज़ार में किताब, कॉपी की दुकान करता था, उसको 2008 में पुस्तकालय चौक पर गोली मार दी गयी जबकि उसकी कोई गलती रही हो यह हमें नहीं मालूम। कमज़ोर लोगों को बड़े लोग आगे बढ़ते हुए देखना नहीं चाहते हैं, शायद यही वजह रही होगी।
श्री फूलेश्वर पासवान