गया में 1967 के अकाल में कृषि की जो स्थिति बन गयी थीं, उसके बारे में विशेष जानकारी के लिये हमने श्री चन्द्रभूषण सिंह, आयु 80 वर्ष, ग्राम श्रीपुर, प्रखंड बेला, जिला गया से संवाद स्थापित किया। चन्द्र भूषण जी एक सरकारी स्कूल में भौतिक विज्ञान और गणित के अध्यापक रह चुके थे।
उनका कहना था कि, हमारा गाँव फल्गु नदी के किनारे हैं। उस समय मैं कॉलेज का विद्यार्थी था। 1967 की घटनायें तो अब कहानी हो गयी हैं। 1966-67 के साल भयंकर अकाल पड़ा था। 1966 में बारिश बहुत कमजोर थी और हथिया का पानी बरसा ही नहीं था। इसका असर हमारे जिले पर बहुत बुरा पड़ा था।
राहत कार्य में सरकार की तरफ से कच्चा कुआँ खोदने के लिये परिवार को 30 रुपया अनुदान मिलता था। आदेश था कि आप लोग एक कच्चा कुआँ काटिये। इससे थोड़ी सहूलियत हो गयी। तब कोई रहट से तो कोई लाठा से पानी लेकर खेतों में डालता था लेकिन जो पानी उपलब्ध हो पाता था उससे धान का काम कहाँ तक चलता? सुखाड़ की स्थिति इतनी बुरी थी कि पीने का पानी भी मिलना मुश्किल हो गया था। उपलब्ध पानी से ज्यादा से ज्यादा 10 से 20 डेसिमल में धान हो पाया तो बहुत था और नहीं तो वह भी नहीं हुआ। ज्यादातर जमीन तो परती ही रह गयी थी।
सरकार की तरफ से राहत के नाम पर हमें बाजरा और लाल गेहूँ दिया गया था। इससे किसी तरह भोजन चल जाता था पर दिक्कत फिर भी कम नहीं थी क्योंकि हम लोग तो चावल खाने वाले थे। पैसा हम लोगों के पास था नहीं और स्थिति वैसे भी खराब थी। भूखों मरने की नौबत आ गयी। धान के न होने से मंहगाई इतनी बढ़ी कि धान की लूटपाट शुरू हो गयी। चावल से कहीं अधिक भाव धान का हो गया था क्योंकि उसे जानवरों को भी खिलाया जा सकता था। उसके बाद गेहूँ की फसल का प्रयास हुआ जो पानी के अभाव में लगभग हुई ही नहीं।
जानवरों का चारा सरकार की तरफ से मिलता था लेकिन उससे आवश्यकता की पूर्ति नहीं हो पाती थी। गाँव में चारे के अभाव में बहुत से जानवर मर गये। बहुत आदमी इस इलाके में भोजन के अभाव में भी मरे थे मगर उनका नाम बताया पाना अब हमारे लिये मुश्किल है। 1967 में हमारे श्रीपुर के मांझी टोला में कई लोग मरे थे। मरने वालों में बूढ़े अधिक थे, कुछ जवान भी काल की भेंट चढ़ गये थे।
बाद में तो बाजरा और लाल गेहूँ सरकारी दुकानों से मिलने लगा था, पर उसके लिये पैसा देना पड़ता था और यह तो वही ले सकता था जिसके पास पैसा हो। सबके पास पैसा था ही नहीं। पाउडर का दूध स्कूलों में बच्चों के लिये आता था पर बहुत सा दूध वहाँ से ही बाजार में चला जाता था, बच्चों को बहुत कम मिल पाता था। इन्हीं परिस्थितियों में जो बच गया तो बच गया और जो मर गया वह मर गया।
पानी तो हमारे यहाँ 1966-67 में पड़ा ही नहीं था। उसके बाद अगले साल 1968 में वर्षा हुई और उसके बाद ही स्थितियाँ सामान्य होने की जगह और बढ़ने लगी थीं। पैसा लोगों के पास अभी भी नहीं था। यूनिवर्सिटी का फॉर्म भरने के लिये हमें 70 रुपये की जरूरत थी पर परिवार के पास उतना भी नहीं था और किसी से माँग सकें, वह स्थिति भी नहीं थी। फार्म न भर पाने के कारण हमारा एक साल बरबाद हो गया।
1968 में बाढ़ आयी थी और सामान्य स्थिति तो 1968 के बाद ही हुई। उस साल पूरा इलाका बाढ़ में डूब गया था और नदी का पूरा पानी हमारे गाँव में प्रवेश कर गया था। उस बाढ़ में भी हमारा काफी नुकसान हुआ।
अब तो खेती घाटे का सौदा हो गयी है। दावे जरूर किया जा रहे हैं की आय दोगुनी हो जायेगी पर कहाँ हो रही है? सरकार जरूर जगी है। अब अनाज मिल जाता है, किसानों को भी वार्षिक तौर पर कुछ अनुदान मिल जाता है।
पिछले साल का गुड़ बचा हुआ था, जिसका शरबत पी-पी कर हम लोग काम चलाते थे, उसी ने जान बचायी। चना भी कुछ बचा हुआ था। उसका भूजा खाते थे। आर्थिक तंगी तो इतनी थी कि शादी-ब्याह किसी के यहाँ क्या होता? कपड़ा भी कंट्रोल से मिलता था। करघा से बना हुआ कपड़ा मिलता था और उसकी भी भारी कमी थी। लुंगी खरीद पाना भी मुश्किल था। धोती की हालत यह थी कि एक लुंगी को फाड़ कर दो आदमी पहनते थे। कंट्रोल की दुकान से ही धोती को फाड़ करके दो ग्राहकों को दे दिया जाता था। हमने खुद वैसी लुंगी पहनी थी।
देहाती क्षेत्र में कपड़ों की बुरी हालत थी। 10-12 साल के लड़के नंगे रहते थे। लड़कियाँ तो घर से बाहर निकलती ही नहीं थीं। हम लोग तो खानाबदोशों जैसी जिंदगी जी रहे थे। बहुत से लोग काम की तलाश में शहर की ओर भागे पर काम तो वहाँ भी नहीं था। यहाँ से एक बस चलती थी गया के लिये जिसके रास्ते में फल्गु नदी पड़ती थी और उस समय नदी में पुल नहीं था। नदी को नाव से पार करना पड़ता था जो कभी-कभी दुर्घटनाग्रस्त भी हो जाती थी। 1968 में बहुत से लोग नौका में दुर्घटना में मारे गये थे। पुल तो इधर हाल में बना है जब जीतन राम मांझी मुख्यमंत्री बने।
श्री चन्द्रभूषण सिंह