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कोसी नदी अपडेट - 1972 का बिहार अकाल, नवादा निवासी मोहतरमा जैनब बुआ से चर्चा के अंश

  • By
  • Dr Dinesh kumar Mishra
  • March-05-2022
-

1972 का अकाल


पत्रकार समी अहमद के सौजन्य से 94 वर्षीया मोहतरमा जैनब बुआ जी, ग्राम पकरी बरावां (तब गया और वर्तमान नवादा जिला) से हुई मेरी बातचीत के कुछ अंश।


उस साल अकाल जैसी हालत हो गयी थी। मेरी बेटी गुलशन गोद में थी। वह भी अब नानी बन गयी है और पटना में रहती है। हम लोगों के खाने में चावल, गेहूं वगैरह आम तौर पर शामिल रहता था पर उस साल बाहर से आया बाजरा, मड़ुआ खाना पड़ गया था क्योंकि खेतों में कुछ हुआ ही नहीं था। बारिश ना होने की वजह से सब कुछ झुलस गया था। राशन की दुकानों से गेहूं के बदले बाजरा मिलता था।

बाजरा सीधे खाना हम लोगों के लिये मुमकिन नहीं था। उसको गेहूं के आटे में मिला कर रोटियां बनायी जाती थीं। बाजरा तो हम लोग जानते भी नहीं थे। दुकान से जब आता था तो उसे ओखली में कूटा जाता था, फिर उसे धो कर सुखा कर पीसा जाता था तब उसका रंग हल्का हो जाता था और वह देखने लायक होता था। तब उसे पीसा जाता था और फिर उसे गेहूं के आटे में मिला कर रोटी बनती थी। उस रोटी को सब्जी से या दही से खाते थे तो उसका जायका खाने लायक हो जाता था। उस अकाल के पहले हमारी खुराक चावल और गेहूं की थी। बाजरा तो हम लोग जानते भी नहीं थे।

उस साल परेशानी बहुत हुई पर अगले साल धान इतना ज्यादा हुआ कि सारी दिक्कतें खत्म हो गयी थीं। अकाल में चावल तभी मंगाया जाता था जब कोई टाइम-बेटाइम हो जाये, कोई मेहमान आ जाये। पुलाव तो किसी बाहरी के आने पर ही उस गाढ़े वक्त में भी बन जाता था। चावल महंगा हो तो क्या मेहमान को घुमा दिया जायेगा?

उस समय हम लोग पकरी बरावां में दूसरे घर में रहते थे। यहां तो बाद में आये। मजदूरों के लिये सरकार ने कुछ काम खोले थे। उन कामों में भी मजदूरी में बाजरा ही दिया जाता था।

हमारे आंगन में कुआं था और खुशकिस्मती से हमारा कुआं कभी सूखा नहीं। इसलिये पानी की दिक्कत हमारे गांव में नहीं हुई थी। अगले मौसम में जब पानी बरसा तो धान हुआ और दुकानों में बाजरा मिलना बन्द हो गया। एक वह दिन और आज। उसके बाद कभी बाजरा नहीं खाया। बाद में जब मौसम माकूल हुआ तब मकई भी हुई। वह तो वैसे भी हमारी खुराक में शामिल थी। मकई को सब्जी या कुचला (लहसुन और मिर्च के साथ कूट पीसकर चटनी) के साथ खाते हैं।

कपड़े की बहुत दिक्कत हो गयी थी। शादी-ब्याह के समय कपड़ा अलग कोटा से मिलता था। उसमें भी साड़ी मिली तो पेटिकोट नहीं मिला और दोनों मिले तो ब्लाउज का कपड़ा नहीं मिला। वहां कुछ न कुछ हर समय घटा ही रहता था। कपड़ा आमतौर पर मोटा ही मिलता था पर कभी-कभी ऐसा भी होता था कि कोटा वाली साड़ी बहुत अच्छी मिल जाये। यह कपड़ा खुले बाजार में तो नहीं मिलता था इसके लिये कोटा वाली दुकानों पर लाइन लगानी पड़ती थी। शहनाज के बाप की शादी थी। शहनाज हमारी गोतनी (देवरानी) की बेटी थी। तब महीन कपड़ा खोजने पर भी नहीं मिला तो सारे रीत रस्म मोटे कपड़े में ही करने पड़े थे और वह भी बड़ी मुश्किल से मिला था।

बरसात आयी तो फिर सब कुछ नॉर्मल हो गया था। कोई नेता इधर दु:ख-सुख बांटने नहीं आया। रेडियो भी घर में नहीं था कि बाहर क्या हो रहा है उसकी खबर मिलती। मुझसे छोटी मेरी मंझली बहन सईदा की बेटी है, साजिदा, जो अब मेरी बहू भी है। साजिदा खातून का जब भाई पैदा हुआ तो डॉक्टर ने कहा कि इसको दूध-चावल दीजिये। अकाल के समय उसके लिये एक पाव चावल आता था जो उसे दूध के साथ दिया जाता था। भाई को दूध-चावल मिलता था तो साजिदा रोती थी कि उसे दूध-चावल क्यों नहीं मिलता? तब साजिदा को बताना पड़ता था कि वह तुम्हारे भाई के लिये जरूरी है। डॉक्टर ने बोला है कि मां को दूध होगा तब वह उसका दूध पीयेगा तब तुमको चावल-दूध मिलेगा। साजिदा के भाई का नाम भुट्टो रखा गया था। उन दिनों भुट्टो बड़ा पसंदीदा नाम हुआ करता था।

उन दिनों सवारी के नाम पर इलाके में हुड वाले रिक्शे चला करते थे, जिनमें औरतें पर्दे में आना-जाना करती थीं। वैसे भी बाहर निकलना कम ही होता था।

मोहतरमा जैनब बुआ

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