बिहार: बाढ़-सूखा-अकाल 1958
आग पानी में लगी...
1958 की बात है। मुंगेर जिले के जून महीने के पहले सप्ताह में फरदा दियारे में लगी आग की वजह से पूरा गाँव 15-20 मिनट के अन्दर तबाह हो गया था। यहाँ गाँव में आई एक बारात का स्वागत करने के लिये पकवान बनाये जा रहे थे। यहाँ दूल्हे और बारातियों को तो कोई नुकसान नहीं पहुँचा लेकिन ग्रामीणों ने जब अपने घरों को बचाने का प्रयास किया उनके हाथ निराशा ही लगी। उनके घर राख हो गये और उनमें रखा हुआ सामान भी नहीं बचा। दियारा इलाके में गर्मी के मौसम में आग लगाना आम बात होती थी और इसके बारे में हमें बिंदा दियारे के 90 वर्ष आयु के बुजुर्ग श्री शम्भु नाथ जायसवाल ने विस्तार से बताया। मुंगेर के पास कल्याणपुर गाँव/प्रखण्ड के निवासी का कहना था कि,
दियारे में आगलगी कोई गैर-मामूली बात नहीं थी। यह तो हर साल कहीं न कहीं होती ही रहती थी। गर्मी के दिनों में हवाएं बड़ी तेज चलती थीं। वहाँ रहने वाले सभी लोगों को बीड़ी, सिगरेट पीने की सख्त मुमानियत रहती थी। अगर कहीं किसी तरह से आग ने पकड़ लिया तो विनाश होने में समय नहीं लगता था। गर्मी के साथ यह तो हर साल की घटना थी। पछिया हवा बहुत तेज चलती थी और वह हों-हों करके आवाज करते हुए बहती थी।
कहीं से लुत्ती (चिंगारी) उड़ी तो जरा सी देर में सब जल कर खाक हो जाता था। पहले तो गंगा के किनारे के सारे दियारे आवाद थे। उसके बाद यह लोग समय के साथ धीरे-धीरे सड़क के बगल में आ गये। दियारे में उनके घर आमतौर पर बाँस-फूस के ही होते थे और जब वह लोग सड़क के आसपास बसने लगे तो शुरू-शुरू में तो वहां भी उनके घर बाँस-फूस के ही बने फिर धीरे-धीरे नये घर पक्के होने लगे। उसके पहले तो कोई जरा सी भी चूक हो गई तो चाहे दियारे में रहें या सड़क के किनारे, घर और टोले को स्वाहा होते देर नहीं लगती थी।
सरकार की तरफ से कभी-कभी लोगों को घर बनाने के लिये कुछ अनुदान मिल जाता था पर सबको नहीं मिल पाता था।
बिंदा दियारा तो सरकार की गैर-मजरुआ जमीन पर बसा हुआ था। इसका फैलाव एक ही मौजे में 84 हजार बीघे का था। उसके 22 टोले थे और उसी में सब बसे हुए थे। उन 22 टोलों को भी 9-10 हिस्सों में बाँटा गया था। मिर्जाबाजार, फुलसिया, झरसावा, झौआ बाजार आदि नाम के टोले वहाँ थे। अपने अनाज को दियारे में रहने वाले लोग लोग जतन से बचाकर रखते थे। घर के पास की जमीन में गड्ढा खोद कर उसी में खर-पतवार की दीवार और फर्श बना दिया जाता था।
जूट का बोरा और चटाई इत्यादि का भी उपयोग अन्दर से फर्श और दीवारों में अस्तर लगाने इसमें इस्तेमाल होता था। सब देख-बहाल कर लोग अपना अनाज अच्छी तरह से ढक दिया करते थे। वर्षा का मौसम शुरू होता था तब समय देख कर अपना-अपना अनाज जमीन खोद कर लोग निकाल लेते थे। पीने के लिये तो पहले चापाकल वगैरह नहीं था। कुआं अगर कहीं था तो वहाँ बहुत ज्यादा भीड़ इकट्ठा हो जाया करती थी। इससे बचने के लिये ज्यादातर लोग गंगा का ही पानी पीते थे और उस पानी की गुणवत्ता पर बहुत ध्यान नहीं दिया जाता था। वह जैसा भी पानी हो पीना ही पड़ता था।
कभी-कभी लोग नदी से पानी लाकर किसी बड़े बर्तन में रख देते थे तो मिट्टी बैठ जाती थी और वह कुछ देखने लायक हो जाता था। कोई दे सका और उसे मालूम भी हो कि फिटकिरी से पानी का शोधन हो जाता है तो वह पानी में फिटकरी वगैरह डाल देते थे। वैसे पानी की गुणवत्ता उतना बड़ा अवरोध नहीं थी। लोग इस तरह से अपने वातावरण में रम गये थे कि उन्हें आमतौर पर कुछ नहीं होता था। उनका शरीर इस तरह की जीवन-शैली का आदी हो जाता था।
आहार-बिहार, खाना-पीना आज के मुकाबले एकदम अलग था और व्यवहार में लोग इतना नीचे नहीं गिरे थे। साधारण जीवन था, दिखावा कम था। नावें गाँव में होती थीं और उन्हीं के पाल का तम्बू बना कर बारात के ठहरने का इन्तजाम हो जाता था। शादी-ब्याह के अवसर ऐसी व्यवस्था आम बात थी और इस पर किसी की भवें तनती नहीं थीं।
गंगा की धारा भी तो स्थिर नहीं रहती थी। 8-10 साल के अंतराल पर आज जहाँ गंगा है, वह यहाँ के रिहाइशी क्षेत्र से दूर हट जाया करती थी। गंगाजी हट गयीं या किनारा काट कर वहीं किसी टोले को काट दिया तो टोला उजड़ जाता था। टोला उजड़ गया तो जहाँ सुविधाजनक लगता था लोग वहाँ चले जाते थे। नदी के व्यवहार के अनुसार लोग अपने आप को ढाल लेते थे। नदी के स्थान बदलने से जो छाड़न का स्थान बनता था, लोग आराम से वहाँ रहने के लिये चले जाते थे।
अब वह सब बदल गया है। अब दियारे में उतने लोग रह भी नहीं गये हैं। खेती के हिसाब से लोगों के घर बनते थे। मवेशी की जगह रख की जगह रख ली जाती थी। जीवन सहज भाव से चलता था। गंगा का फैलाव तो बिहार में आकर बहुत हो जाता है और उसी के हिसाब से समस्यायें भी बढ़ जाती हैं। फिर भी लोग वहाँ रहते ही हैं।
((श्री शम्भु नाथ जायसवाल))