दरभंगा जिले के समस्तीपुर सब-डिवीज़न के दलसिंहसराय अंचल में पिछले दिनों की भयंकर वर्षा से विभूतिपुर प्रखंड क्षेत्र में धान और मकई की फसल को भारी क्षति पहुँची थी। धान के छोटे-छोटे पौधे जो हाल ही में रोपे गये थे, पानी में डूब गये और मकई में भी पानी लग गया।
सबसे अधिक क्षति साख मोहन गाँव में हुई क्योंकि इस गाँव की जमीन नीची थी और चारों ओर से पानी वहाँ इकट्ठा हो जाता था, जिसकी निकासी का कोई प्रबन्ध नहीं था। इस गाँव की भदई और अगहनी फसलें हर वर्ष बरबाद हो जाया करती थीं।
इस पूरी त्रासदी की जानकारी के लिये हमने साख मोहन गाँव, प्रखण्ड विभूतिपुर, जिला समस्तीपुर (तत्कालीन दरभंगा) के किसान श्री राम चरित्र साह से बात की जो मित्र श्री लोकेश शरण के सौजन्य से सम्भव हो सका और उन्होनें जो कुछ भी बताया उसे हम उन्हीं के शब्दों में यहाँ उद्धृत कर रहे हैं।
उनका कहना था कि, उन दिनों हमारे गाँव का नाम ओइनी रतनपुर उर्फ साख मोहन था, जो अब केवल साख मोहन रह गया है। 1963 में हमारे यहाँ भयंकर बाढ़ आयी थी। उन दिनों हमारा गाँव एकदम अविकसित था। सड़क, पुल, पुलिया कुछ भी यहाँ नहीं थी। इतना पानी आ गया था कि हम लोग पूरी तरह से घिर गये थे। अच्छे-अच्छे परिवार बिखर गये।
बूढ़ी गंडक नदी के टूटने और लगातार वर्षा के कारण हर तरफ से हमारे गाँव में पानी प्रवेश कर गया था। बूढ़ी गंडक के तटबन्ध में यह दरार ढोली के पास कहीं पड़ी थी। भारी बारिश ऊपर से ऊपर से हो रही थी। बूढ़ी गंडक का पानी बैंती नदी से होता हुआ हमारे यहाँ पहुँचा था। बैंती नदी साख मोहन गाँव के बीच होकर बहती है और हमारा गाँव इस नदी के दोनों तरफ बसा हुआ है। बैंती नदी के बायें किनारे पर हमारे गाँव में घर ज्यादा थे। उस साल पानी इतना अधिक हुआ कि उसने 16 किलोमीटर दूर दलसिंहसराय तक को घेर लिया हुआ था। इतनी दूरी में जितने भी गाँव बसे हुए थे वह सब के सब बाढ़ के पानी से घिरे या डूबे। जान-माल की भी काफी क्षति हुई। बहुत से लोग पशुवत जीवन जीने के लिये मजबूर हो गये थे।
पानी पहले यहीं आया। बैंती में बाँध नहीं था पर छोटी-छोटी मिट्टी की दीवारें कहीं-कहीं थीं जिनमें कुछ स्लुइस गेट लगे हुए थे। उनसे पानी रुकने या निकलने वाला नहीं था। पूरा इलाका जल-मग्न हो गया था। बाढ़ से बचने के लिये लोगों को बहुत जतन करना पड़ा। जिन्हें कुछ नहीं सूझा वह लोग पेड़ पर चढ़ गये। ऐसी हालत में लोगों के खाने-पीने, बारिश से बचने, टट्टी-पेशाब का क्या हुआ होगा उसका तो आप अनुमान ही लगा सकते हैं।
शौच की व्यवस्था तो बड़ी मुश्किल थी। पेड़ पर गये लोगों को तो वहीं से और बाकी लोगों को पानी में ही खड़े होकर सब कुछ करना पड़ता था। महिलाओं को पर्दा चाहिये तो वो क्या करतीं? जहाँ नाव थी वहाँ नाव से आड़ की जगह खोजनी पड़ती थी। पानी निकलने के बाद हर तरफ कीचड़ ही कीचड़ था। आवाजाही में सुधार तो हुआ पर मजबूरी कम नहीं हुई। रास्ते जब खुले तब सरकार की तरफ से मकई, जनेर, गेहूँ आदि थोड़ा बहुत दिया गया पर यह मदद भी सब तक नहीं पहुँची।
कमजोर तबके के लोगों की स्थिति में इस मदद से कोई सुधार नहीं हुआ। पानी शान्त होने पर घर बनाने के लिये कुछ लोगों को मदद मिली थी पर सबको नहीं। अगर 200 घर गिरे होंगे तो 50 लोगों को 25-30-35 रुपया घर बनाने के लिये मिला होगा। जब पूरा परिवार अव्यवस्थित था तो इतनी मदद से क्या होता? तत्काल तो घर के मुकाबले भोजन अधिक जरुरी था। बहुत सा पैसा तो उसी में खत्म हो गया तो घर कहाँ से बनता? गाँव में कुछ नावें थीं जिनकी मदद से पानी निकलने के बाद आवाजाही शुरु हुई।
सरकार बहुत बाद में आयी और वह रास्तों के अभाव में तुरन्त आ भी नहीं सकती थी। इसलिये बाढ़ का शुरुआती मुकाबला तो लोगों को ही करना था।
जब हालात थोड़ा सुधरना शुरू हुए तब काम की तलाश में बहुत से लोग पूर्णिया की तरफ पैदल ही चले गये कि उधर कोई रोजगार मिल जायेगा। बहुत से लोग कलकत्ता की ओर चले गये और उनकी संख्या अधिक थी। यहाँ तो अब स्थिति काबू में आने में समय लगने वाला था। बाद में हथिया का पानी बरसा तब 15 दिनों के लिये फिर तबाही की झड़ी लगी। खेत में लगी फसल तो पहले ही चौपट हो चुकी थी तो हथिया की बारिश का कोई फायदा नहीं था और रब्बी की फसल का कोई भरोसा न होने के कारण बैशाख तक कोई काम मिलने की उम्मीद भी नहीं थी।
यह तो हुई 1963 की बात। आमतौर पर 1970 के पहले गाँव में बहुत दिक्कत थी। बाढ़ के साल अक्सर यहाँ अल्हुआ, सुथनी, केराई आदि ही लोगों का मुख्य भोजन हुआ करता था। गेहूँ तो कभी-कभी प्रसाद के तौर पर मिल जाता था। इसके अलावा जौ, मडुआ, कोदो, सावाँ आदि मोटा अनाज ही होता था।
प्रकृति ने अगर साथ दे दिया तो थोड़ा-बहुत धान हो जाता था। सुखाड़ में चावल एकदम नहीं होता था। हमारे गाँव में 1929 में एक मिडिल स्कूल बना था पर जिसमें चौथा-पाँचवाँ तक तो बच्चे जाते थे पर उसके बाद बहुत कम ही आगे बढ़ पाते थे। उस समय गाँव की आबादी 5,000 के आसपास रही होगी जो अब 20,000 हो गयी है। हमारे गाँव में 10,000 वोटर हैं।
1970 के बाद स्थितियों में सुधार होना शुरू हुआ खेती के तरीके बदले, नये बीज आये, सिंचाई के लिये कुछ-कुछ व्यवस्था हुई वरना उसके पहले तो भगवान ही मालिक था।
((श्री राम चरित्र साह))