“हमने कोसी की बाढ़ और उसकी भयावहता के बारे में पढ़ा, हमने बाढ़ को रोकने और उसके प्रयास को पढ़ा और साथ ही उसके दुष्प्रभाव को भी देखा अब प्रस्तुत है उसकी अगली कड़ी।”
सदियों के अनुभव के बाद यह सारी पेचीदगी अब सभी सम्बद्ध पक्षों को मालूम है। राज-सत्ता ने लम्बे समय से नदी की बाढ़ को रोकने के क्षेत्र में हस्तक्षेप किया है। उसने व्यक्तिगत घरों या इक्का-दुक्का गाँवों को बचाने की जगह नदी को ही बाँध देने के प्रयास किये और इस तरह से ज्ञात इतिहास में सबसे पहले चीन में ह्वांग हो नदी पर सातवीं शताब्दी ईसा पूर्व में तटबन्ध बनना शुरू हुये। यह वही ह्वांग हो नदी है जिसे ‘चीन का शोक‘ कहते हैं। इसके बाद ई-पूर्व पहली शताब्दी में चीन में ही यांग्ट्सी नदी को बांधा गया। इसी तरह बेबीलोन शहर और नदी के बीच तटबन्ध सदियों पुराने हैं। पहली शताब्दी ईसाब्द में इटली की पो नदी को बांधा गया और बारहवीं शताब्दी में मिस्र की नील नदी पर तटबन्ध बने। अमेरिका में जब मिस्सिस्सिपी घाटी में बस्तियाँ बसना शुरू हुईं तब उस नदी पर तटबन्धों का निर्माण 1727 ई- में पूरा कर लिया गया था।
भारतवर्ष में बिहार में कोसी नदी को बांधने का काम 12वीं शताब्दी में किसी राजा लक्ष्मण द्वितीय ने करवाया था और इस काम के लिए उसने प्रजा से ‘बीर‘ की उपाधि पाई और नदी का तटबन्ध ‘बीर बांध’ कहलाया। इस तटबन्ध के अवशेष अभी भी सुपौल जिले में भीम नगर से कोई 5 किलोमीटर दक्षिण में दिखाई पड़ते हैं। डॉ- फ्रान्सिस बुकानन (1810-11) का अनुमान था कि यह बांध किसी किले की सुरक्षा के लिए बनी बाहरी दीवार रहा होगा क्योंकि यह बांध धौस नदी के पश्चिमी किनारे पर तिलयुगा से उसके संगम तक 32 किलोमीटर की दूरी में फैला हुआ था। डॉ डब्लू. डब्लू. हन्टर (1877) बुकानन के इस तर्क के साथ सहमत नहीं थे कि यह बांध किसी किले की सुरक्षा दीवार था। स्थानीय लोगों के हवाले से हन्टर का मानना था कि अधिकांश लोग इसे किले की दीवार नहीं मानते और उनके हिसाब से यह कुछ और ही चीज़ थी मगर वह निश्चित रूप से कुछ कहने की स्थिति में नहीं थे। फिर भी जो आम धारणा बनती है वह यह है कि यह कोसी नदी के किनारे बना कोई तटबन्ध रहा होगा जिससे नदी की धारा को पश्चिम की ओर खिसकने से रोका जा सके। लोगों का यह भी कहना था कि ऐसा लगता था कि इस तटबन्ध का निर्माण कार्य एकाएक रोक दिया गया होगा।
लोक कथाओं में यह बीर बांध कुछ इस तरह मशहूर है कि इस इलाके में एक बांका जवान जरूर ऐसा हुआ था जिसने कोसी की शोख़ी पर काबू पाने की कोशिश की थी। कहते हैं यह दैत्याकार पुरुष कोसी की सुन्दरता को देख कर उस पर लट्टू हो गया और उसने कोसी के सामने विवाह का प्रस्ताव रखा। कोसी ने विवाह के लिए मना तो नहीं किया मगर एक शर्त रखी कि अगर वह आदमी एक रात के अन्दर उसे हिमालय से लेकर गंगा में नदी से उसके संगम तक तटबन्धों में बांध दे तो कोसी उसकी हो जायेगी वरना उसे अपनी जान से हाथ धोना पड़ेगा। दैत्य ने उसकी शर्त मान ली और अपना काम शुरू कर दिया। जैसे-जैसे तटबन्ध आगे बढ़ता गया वैसे-वैसे कोसी की परेशानियाँ बढ़ती गईं क्योंकि उस दैत्य के काम की रफ़्तार ही कुछ ऐसी थी। तब कोसी भागी-भागी अपने पिता, भगवान शंकर के पास गई और मदद के लिए गुहार लगाई। भगवान शंकर मुर्गे के रूप में उस जगह पहुँचे जहाँ दैत्य काम कर रहा था और बांग देने लगे। यद्यपि राक्षस ने अपना ज़्यादातर काम ख़त्म कर लिया था मगर मुर्गे की बांग सुन कर सकते में आ गया कि अब जल्दी ही सुबह होने वाली है। उसने वहीं काम छोड़ दिया और जान बचाने की ग़रज़ से भाग खड़ा हुआ और कोसी आज़ाद रह गई।
इस तटबन्ध के निर्माण की वज़ह से मुमकिन है कि इसके पश्चिम में बाढ़ से कुछ राहत मिली हो और वहाँ रहने वाले लोगों ने बनाने वाले को ‘बीर‘ की उपाधि दी हो मगर तटबन्ध के पूरब में तो बाढ़ की स्थिति निश्चित रूप से ख़राब ही रही होगी। शिलिंगफ़ोर्ड (1895) का कहना था कि इस तटबन्ध के पश्चिम में भी हालत कोई ख़ास अच्छी नहीं थी क्योंकि इस विशाल तटबन्ध के कारण धेमुरा और तिलयुगा नदियों के रास्ते बंद हो गये थे और इस तटबन्ध की वज़ह से तिलयुगा का पूरा पानी बाहर ही रह गया और नदी में नहीं घुस पाता था।
बिहार में बाढ़ से निबटने की अगली बड़ी घटना 1756 ई- में गंडक तटबन्धों के निर्माण की हुई जिसे बिहार के तत्कालीन सूबेदार मुहम्मद कासिम खां के नायब धौसी राम ने बनवाया था। यह तटबन्ध 158 किलोमीटर लम्बा था और इस पर एक लाख रुपये की लागत आई थी। इस तटबन्ध का बनना था कि देश की हुकूमत ईस्ट इंडिया कम्पनी के ज़रिये अंग्रेजों के हाथ में पहुँच गई।
कोसी नदी की यह जानकारी डॉ दिनेश कुमार मिश्र के अथक प्रयासों का नतीजा है।