बाढ़/सूखा/अकाल – श्री सुबोध शर्मा, ग्राम सिमरिया, प्रखंड बरौनी, जिला बेगूसराय से हुई बातचीत.- 2
"हमारे दियारे के इसी अल्हुआ नें अकेले आसपास के कितने गाँवों में अकाल का मुकाबला कर लिया था."
हम लोग तो बच्चे थे. दो चार दिन तो पानी के बीच हम लोगों को बड़ा मज़ा आया क्योंकि मकई लगी हुई थी तो खाने का बड़ा सुख था और स्कूल भी नहीं जाना था. धीरे-धीरे पता लगा कि जानवरों का चारा ख़त्म हो रहा है. यहाँ स्टेशन के पास हमारी एक बुआ रहती थीं. कुछ दिन तक उनके यहाँ से चारा मंगा कर जानवरों को खिलाया. फिर यह अंदाजा होने लगा कि यह व्यवस्था ज्यादा समय तक चलने वाली नहीं है. हमारे एक सम्बन्धी जमुई स्टेशन के पास खैरा बाज़ार है और उसी के पास नौडीहा गाँव में रहते थे और उनके इलाके में बाढ़ नहीं थी क्योंकि वह तो गंगा के उस पार के थे और बाढ़ उनकी तरफ नहीं थी क्योंकि नदी का सारा पानी तो हमारी तरफ बह रहा था. मैं एक अन्य कारिन्दे के साथ उनके यहाँ गया. उस समय इंदिरा जी प्रधान मंत्री थीं और उनके सौजन्य से पंजाब से पशु चारा आ गया था और हमने तीन वैगन चारे का परमिट बनवा लिया और तभी वहाँ से वापस आये.
उस साल रब्बी की जो फसल हुई उसका जवाब नहीं था. हमारे यहाँ गेहूं और चना एक साथ बोने का रिवाज़ है. कटाई के बाद जो दौनी होती थी उसमें गेहूं और चना एक साथ निकलता था और इसे अलग करने के लिए चार फुट चौड़ी और छ फुट लम्बी जैसी बड़ी-बड़ी चलनी में छान लिया जाता था. आकार में बड़ा होने के कारण चना चलनी में ऊपर रह जाता था और गेहूं छन कर नीचे आ जाता था. उस साल गेहूं का आकार इतना बड़ा था कि वह चलनी से छन कर बहुत कम नीचे आया और उसे अलग करने में बड़ी दिक्कत हुई थी.
जो याद है वह यह कि बाया नदी पर यहाँ एक पुल था जो लकड़ी का बना हुआ था. लकड़ियाँ बहुत मोटी और मजबूत थीं और आपस में कैंची कर के जुडी हुई थीं. इसी लकड़ी के पुल पर से रेल गाडी जाती थी. जब राजेन्द्र पुल बन गया तब बाया पर बने इस लकड़ी के पुल और और रेल लाइन की उपयोगिता समाप्त हो गयी. जब बाया के ऊपर का पुल और रेल लाइन उखड गयी तब बाया को थोड़ी आज़ादी मिल गयी. यहीं पर एक बिन्द टोली गाँव था जिसमें एक छोया की मिल थी जो 45 एकड़ में बनी हुई थी. गंगा नदी ने बिन्द टोली की उस जमीन को नीचे से काटना शुरू किया. एक-एक कट्ठे का ज़मीन का टुकड़ा टूट कर गंगा में समा जाता था जिसे हम लोगों ने देखा था.
धीरे-धीरे बिन्द टोली उजड़ गयी, गंगा प्रसाद गाँव भी बच नहीं पाया. यह बात अलग है कि बेगूसराय के मौजूदा नक्शों में बाया को गंगा प्रसाद गाँव के पास ही गंगा में समाते हुए दिखाया जाता है. बाया तो कबकी तेघरा प्रखंड में चली गयी. सिंघपुर समाप्त हो गया और मधुरापुर भी उजड़ गया. मधुरापुर तीन टोले का गाँव था. पहला जो टोला था उसे पुवारी टोल कहते थे वह अभी भी बाया नदी के बायें किनारे पर इस पार में बसा हुआ है. मधुरापुर वालों की ज़मीन जब कटना शुरू हुई तब उनको बसाने के लिए बरौनी के अम्बा सिनेमा के पास के निपनियां गाँव की ज़मीन ली गई और इस पर उन लोगों को बसाया गया. कुछ परिवार कट कर तेघरा के पास रहने के लिए चले गए.
बाया नदी के बायें किनारे पर एक बाँध बनाया गया जिसे लोग गुप्ता बाँध के नाम से ही जानते हैं. यह बाँध मेरे सामने बना था. पहले यह सीधा गंगा तक जाता था मगर बाद में इसे मोड़ कर रूपनगर होते हुए आगे बढ़ाया गया. पहले यह सीधा गंगा तक जाता था मगर बाद में इसका विस्तार करके मोड़ दिया गया और यह रूपनगर, कसहा, बरियाही और अमरपुर होते हुए बरौनी थर्मल पॉवर प्लांट और उससे आगे तक चला गया है. इसी बाँध के बगल में बरौनी का बस स्टैंड है. गंगा प्रसाद गाँव जो था वह अब उठ कर मेरे गाँव के उत्तर में आकर बस गया है. यहीं तीन टोले गाँव अमरपुर भी बसा हुआ है. गंगा प्रसाद अपेक्षाकृत छोटा गाँव है.
बाया नदी पर जो लकड़ी का पुल बना हुआ था उस पर चढ़ कर हम लोग 10 फुट नीचे बाया नदी में कूद कर नहाया करते थे और तैरने का अभ्यास करते थे. फिर लकड़ी वाला पुल पकड़ कर ऊपर आते थे और हम लोगों का खेल चलता रहता था. इस पुल से मेरा घर दस मिनट के पैदल के फासले पर होता था. हमारे गाँव की गंगा से रक्षा अब यही गुप्ता बाँध करता है.
एक बात और कि आज से पचास साल पहले गंगा में जितना पानी आता था और उस पानी की जो गहराई थी वह अब नहीं है. गंगा नदी की दो धाराएं तब भी हुआ करती थीं और यह आज भी है. गंगा की एक धारा तो हमारी तरफ थी और दूसरी धारा मोकामा घाट की तरफ थी. बीच का बालू वाला जो हिस्सा था उसमें उन दिनों खेती होती थी और आज भी होती है. दियारे में उन दिनों परवल खूब होता था. हमारे यहाँ जो सफ़ेद रंग का परवल होता है उसे लोग सदका (सादा) भी कहते हैं, उस पर धारी नहीं होती और वह बहुत स्वादिष्ट होता है.. दियारे में हमारे जानवर भी रहते थे जिससे उनके गोबर से ईंधन की व्यवस्था हो जाती थी. दियारे में गोबर पाथना नहीं पड़ता है. सीधे गोबर ही जलाया जाता है. भैंसों का दूध मिल जाता था. उन दिनों दूध बाल्टी में नहीं दुहा जाता था. मिटटी के बर्तन में जिसे कटिया कहते हैं उसी में दूहा जाता था और मिटटी के ही एक बड़े घड़े में जिसे डाबा कहते थे उसी में रख कर गाँव लाया जाता था. दूध को तब तक आंच पर रखते थे जब तक वह लाल न हो जाय. कितना स्वादिष्ट और मीठा दूध होता था वह. परवल तोड़ कर इसी ईंधन पर चोखा बनता था और गोबर जला कर लिट्टी बनती थी. लिट्टी-चोखा और दूध का बिना मेहनत के इंतजाम हो जाता था. मस्त ज़िन्दगी थी.
1966-67 में इस इलाके में अकाल पड़ गया था. उस समय इसी दियारे में जो अल्हुआ (शकरकंद) पैदा हुआ उसे खरीदने के लिए पश्चिम के गाँवों की कुंजडिनें नाव से आती थीं और चार रूपया मन के हिसाब से खरीद कर ले जाती थीं.एक-एक किलो का अल्हुआ होता था इस दियारे में. वह पैसों का भुगतान रेजगारी में करती थीं जो उनके पल्लू में बंधा होता था जो शायद उनकी बचत का हिस्सा थी. सिक्के गिनने में हम लोगों का बहुत समय जाता था. वह जैसे-तैसे पैसा बचा कर रखती थीं और वही हमें लेना पड़ता था. हमारे दियारे के इसी अल्हुआ नें अकेले उस आसपास के कितने गाँवों में अकाल का मुकाबला क्रर लिया था.
इस खित्ते में मधुरापुर और निपनियां की ज़मीन है. निपनियां के दक्षिण और अमरपुर के उत्तर एक गाँव है बारो जो मुख्यतः मुसलमानों का गाँव है और एकदम बाया के बाँध से सटा हुआ था. यह एक अच्छा खासा बाज़ार है. हम लोग बाज़ार करने के लिए नए बसाए गए गंगा प्रसाद और नए अमरपुर होते हुए एक किलोमीटर बारो और उसके एक किलोमीटर आगे फुलवरिया बाज़ार चले जाते हैं. गड़हरा में रेलवे वाले रहते हैं जिनके पास पैसा है. इसलिए गड़हरा हम लोगों के लिए महंगा पड़ता है.
हमारे बुज़ुर्ग हम लोगों से नाव चलाने को कहते थे. नाव के आगे होता है डांड़ और पीछे पतियारा. बरसात में जब नदी की चौड़ाई 3-4, 4-4 किलोमीटर हो जाया करती थी तब 7-8 किलोमीटर की दूरी नाव पर तय करनी पड़ती थी. हम लोग चार डांड़ आगे लगाते थे और इसमें बहुत ताकत लगती थी. बाया की धारा भी बहुत तेज़ थी. बरसात के बाद भी उसमें बहुत और बड़ी मछली आती थी. बड़ी मछली पकड़ना थोडा मुश्किल होता है वह भागने की कोशिश करती है. कई बड़ी मछलियाँ एक साथ अगर पकड़ में आ जाएँ तो उन्हें संभालना मुश्किल हो जाता है.
"तेज़ धारा में उतरना भी कम खतरनाक नहीं होता. मान लीजिये कि बाया की तेज़ धारा में कोई उतर गया तो आप के पैर के नीचे जो बालू है उसे तो नदी का तेज़ बहता हुआ पानी काटेगा और अगर संभाल नहीं पाए तो बाया आपको गंगा की तरफ ठेल देगी. करीब एक किलोमीटर बाया में बहने के बाद गंगा का पानी मिलेगा. वहां की स्थितियां पहले जैसी ही हैं. पैर के नीचे से तेज़ प्रवाह के कारण गंगा भी बालू काट कर आगे को बढ़ाएगी. ज़रा सी चूक होने पर आप को नदी सीधे मुंगेर घाट पहुंचा देगी."
समाप्त.