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कोसी नदी अपडेट - बिहार में बाढ़, सुखाड़ और अकाल, श्री कुमार शचीन्द्र सिंह से हुयी बातचीत के अंश, भाग - 2

  • By
  • Dr Dinesh kumar Mishra
  • March-31-2020
बीरपुर, जिला सुपौल के श्री कुमार शचीन्द्र सिंह से हुई मेरी बातचीत के कुछ अंश -2

कोसी प्रोजेक्ट का जब काम शुरू हुआ तब हमारे घर में यह तय हुआ कि कोसी प्रोजेक्ट क्षेत्र में जाकर कुछ काम किया जाए। मेरे पिताजी इस इलाके से वाकिफ थे और काफी पहले वह लोग निर्मली होते हुए रेल से रहड़िया-भपटियाही होते हुए नदी को पार करके बीरपुर जाया करते थे। बाद में यह पुल बाढ़ में बह गया तो आना-जाना मुश्किल हो गया। तब निर्मली छोड़ कर हनुमाननगर की ओर से आना-जाना शुरू हुआ। जब कोसी बीरपुर को छोड़ कर पश्चिम चली गई तब हनुमाननगर की ओर से हम लोग आने लगे। बथनाहा स्टेशन तब भी बचा हुआ था मगर बलुआ वाली सड़क नहीं थी। यहां की राजनीति में जब ललित बाबू का प्रभाव बढ़ा तब वह फारबिसगंज-बीरपुर वाली सड़क को घुमाकर बलुआ होते हुए बीरपुर तक ले आए।

1950-52 में तो यहां कोसी प्रोजेक्ट नहीं था पर 1957 में था और उस समय तक काफी लोग यहां बस चुके थे और खेती भी शुरू हो गई थी। तब कोसी प्रोजेक्ट में जहां भी सतही पानी उपलब्ध था वहां पानी पंप करके सिंचाई का कुछ प्रबंध किया गया था पर यह वही संभव था जहां पानी हो। जहां वह पानी नहीं था वहां न तो बोरिंग की व्यवस्था हो पाई थी और न कोई वैकल्पिक व्यवस्था खड़ी की गई। उस साल हम लोग भी नदी के किनारे एक डेढ़ एकड़ में खेती कर पाए थे। कुछ खास उपजा भी नहीं था। पांच-दस मन धान हुआ होगा। मडुआ जरूर हुआ था। मड़ुआ एक ऐसा अनाज है कि जब भी उसे झाड़ दीजिएगा तब कुछ न कुछ अनाज निकल आएगा। मडुआ गजब की चीज है।

हम जब हम हम जब 1975 में एमर्जेंसी लगने के बाद भाग कर नेपाल गए तब उसके पहले हमने नेपाल में कोसी के पेट में कुछ जमीन लेकर आबाद कर रखी थी। भारत में रहने पर पकड़े जाने का ख़तरा था क्योंकि सरकार को हम सुहाते नहीं थे। पास में कटिहार से कुछ मजदूरों को लेकर वहां रख दिया था। नदी की पेटी में वह सब परवल की खेती करते थे। नदी के बेड में ही उन सब ने मचान बना रखी थी। उसी पर उनका जरूरी सामान और सोने-रहने का इंतजाम था और चूल्हा भी वहीं था।

पानी बरसने पर खाना भी मचान पर ही बनता था। जो भी धान हुआ था उसका बोरा भी मचान पर ही रखा गया था। एक बार पानी कुछ ज्यादा ही बढ़ने लगा था तो हमारे पास एक चौकी थी उसी को मचान से बांध दिया था तो जैसे-जैसे पानी बढ़ता था वैसे-वैसे चौकी भी ऊपर उठती थी। जब चौकी उठते-उठते मचान के छप्पर से टकराने लगी तब लगा कि अब धान नहीं बचेगा तो हम लोग मचान के छप्पर पड़ चढ़ गए। वहां से हम लोगों ने शोर मचाना शुरू कर दिया तो उधर से एक नाव वाला गुजर रहा था, वह पास आया। उसी नाव में हम लोगों ने धान उतार कर रखा और सारा सामान लेकर थोड़ी दूर पर पूर्वी तटबंध से लम्बवत निकला एक स्पर था, उस पर लाकर रख दिया। वहां पहले से कुछ मवेशी थे। उसी जगह पहले एक झोपड़ी डाली और फिर वहीं एक टेन्ट डाला और उसी में रहने लगे। एक दिन संयोग से पानी बरसने लगा और उसकी तेजी इतनी ज्यादा थी कि सारे मवेशियों ने सिर छुपाने के लिए टेन्ट में ही मूंडी घुसा दी। जैसे तैसे सुबह हुई। हमारे पास एक लोहे वाला चूल्हा था जिसमें ईंधन के तौर पर झौआ की सुखाई हुई लकड़ी का इस्तेमाल हम लोग करते थे। उसी पर खाना बनता था।

इधर बीरपुर में एक इंस्पेक्टर पिताजी का परिचित था और वह जानता था कि मैं नेपाल सीमा के अंदर कोसी के बेड में रह रहा हूं। उसने पिताजी को कहा कि मुझे खबर कर दें कि मैं यहां से कहीं दूसरी जगह चला जाऊं वरना किसी दिन रात को बिहार की पुलिस जाकर उन्हें वहां से उठा लाएगी। हमारी हालत यह थी कि दिन भर तो हम लोग नेपाल के हरिपुर गांव में रहते थे पर रात को नाव लेकर कोसी नदी में चले जाते थे। कोसी का प्रवाह तो विकट था इसलिए लंगर गिराकर नाव को अटका देते थे और रात भर वहीं रहते थे। ऐसा न करते तो नाव बह कर बराज के फाटक से टकरा जाती।

बीरपुर थाने से किसी तरह से मेरे नेपाल में होने की खबर वहां की पुलिस को मिली। नेपाल में उन दिनों रिवाज यह था कि वहां की पुलिस न तो आपको कैद करती थी और नहीं हथकड़ी लगाती थी। थाने से पहले आपके पास एक सिपाही खबर लेकर आता था कि आपकी थाने में बुला हट है। वह सिपाही आपको पुलिस के यहां पहुंचा भी देता था। उसके बाद आप को जेल भेजना है या क्या करना है यह अधिकार वहां के अफसर का होता था। मेरे पास भी एक दिन भंटाबाड़ी (नेपाल)के डी.एस.पी. के यहां से बुलाहट आई। वहां बुलाहट का मतलब ही होता था कि आप के खिलाफ कार्रवाई होगी।

मैं जाकर डी.एस.पी. से मिला। उसने मुझसे पूछा कि आप यहां क्यों आए? मेरा जवाब था कि मेरे ऊपर भारत में मीसा लगा हुआ है इसलिए मैं भाग कर यहां आया हूं। मैं 1962 में पंचायत का मुखिया था और उन दिनों हर मुखिया को सरकार की तरफ से बंदूक दी जाती थी। 1965 की लड़ाई के बाद सीमा के पास के सारे मुखिया को वह बंदूक जमा करने का आदेश हुआ तब मैंने वह बंदूक थाने में जमा करवा दी और उसकी रसीद ले रखी थी और वह रसीद संयोगवश मेरे पास थी जो मैंने उस अधिकारी को दिखा दी कि वह बंदूक अब सरकार के पास है। तब उसने कहा कि आपके पास एक लाइसेंसी रिवाल्वर भी है, वह कहां है? मैंने कहा कि वह तो मेरे घर में है बीरपुर में। आप कोई आदमी मेरे साथ सीमा तक भेज दीजिए मैं घर से किसी को बुला कर बता दूंगा कि रिवाल्वर कहां है। लेकिन मैं सीमा पार नहीं करूंगा क्योंकि वहां मुझे पुलिस पकड़ लेगी। डी.एस.पी. ने पता नहीं क्यों रिवाल्वर की बरामदगी पर ज़ोर नहीं दिया। मेरा नेपाल में रहने का स्वार्थ था कि यहां भारत से भागे हुए कर्पूरी ठाकुर, जार्ज फर्नांडिस आदि जैसे नेताओं की मैं मदद कर सकता था जो नाम और हुलिया बदल कर वहां से अपना काम कर रहे थे। मुझे अंदेशा था कि बिहार के पुलिस रिवाल्वर गायब कर के इल्जाम मेरे ऊपर लगा देगी। वैसे भी मुझे पा जाएगी तो छोड़ेगी नहीं।

हम ने कहा कि पुलिस और सरकार से ही तो हमारा झगड़ा था। वहां नेपाल का उस समय का कानून था कि राजविराज का उस समय का क्षेत्रफल 182 एकड़ था और यह डी.एस.पी. के अधिकार क्षेत्र में था कि वह हमें उसके बाहर न जाने दें। उसने कहा कि ठीक है लेकिन आप 182 एकड़ के बाहर नहीं जा सकते। मेरे लिए यही सजा तय हुई। यह एक तरह से खुली जेल की सजा दी। जैसे ही आप इसके बाहर कदम रखेंगे आप पर जेल तोड़ने की दफ़ा लग जाएगी। दो दिन तो मैं राजविराज में अपने परिचित के यहां रहा मगर ऐसा कब तक चलता? मेरे कुछ जानने वाला धरान में थे उनको मैंने खबर की तो वह लोग राजबिराज आ जाए और डी.एस.पी. से कहा कि उनका यहां कुछ भी नहीं है इनका धरान ट्रांसफर कर दीजिए। वहां से यह बाहर नहीं जाएंगे। डी.एस.पी. मान गया। तब हम धरान आ गए और वहां करीब 2 साल रह गए जब एमर्जेंसी खत्म हो गई तभी भारत वापस आए।

चलते-चलते उन्होंने मुझसे और भी कुछ कहा,

1. मेरी उम्र 88 साल है, मुझे 42 साल से डाइबिटीज है जिसकी मैं परवाह नहीं करता। सब कुछ खाता-पीता हूं।
2. मेरे सारे दांत सलामत हैं और मैं कभी दांतों के डॉक्टर के पास नहीं गया। उन्होंने अपने दांत भी मुझे कृपा पूर्वक दिखाये।
3. मैं जन्मपत्री पर विश्वास करता हूं और उसके अनुसार मैं 102 साल तक जियूँगा।

श्री शचींद्र कुमार सिंह

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