सौ वर्ष के श्री मिश्री राय, ग्राम/ पोस्ट बसांव, जिला सिवान से मेरी बातचीत के कुछ अंश।
मेरा गाँव गौरियाकोठी - बसांव है और मेरी आज उम्र सौ वर्ष, एक महीना तथा 9 दिन है (9 फरवरी, 2020). हमारे यहाँ सरयू नदी में 1945 में भयंकर बाढ़ आयी थी और 1950-52 में वैसा ही सूखा पड़ा था. अनाज नहीं मिलता था, खेती चौपट हो गयी थी. विदेश से मोटे-मोटे दाने वाली मकई मंगानी पड़ गयी थी. गेहूँ का दलिया रिलीफ में मिलता था यहाँ और उसी को उबाल-उबाल कर खाने की नौबत आ गयी थी. सरकार मदद करने की कोशिश करती रही लेकिन कितने लोगों की मदद कर पाती. जिसको रिलीफ मिल गयी उसका काम चल गया और जिसको नहीं मिली उसकी मदद पूरा गाँव मिल कर करता था.
जब तक देश गुलाम था तब तक दिक्कत ज्यादा थी क्योंकि अँगरेज़ शासन वहीं से अनाज मंगवाता था जहां-जहां उसकी हुकूमत थी. इसमें देर होती थी. आज़ादी के बाद स्थिति में सुधार हुआ और बहुत से दूसरे देशों से भी अनाज आना शुरू हुआ.
कपड़े की बहुत दिक्कत थी. कहीं मिलता ही नहीं था. हम लोग नदी पार करके चंपारण जाते थे कपडे के लिए. वहाँ ज़रा आसानी से मिल जाता था. वहां से गज्जी का कपड़ा लाते थे बड़ी मुश्किल के साथ. शादी-ब्याह के समय तो और भी मुश्किल होती थी. महाजन से पैसा उधार लेना पड़ता था वह भी महीनें में एक रुपये की जगह अट्ठारह आना लौटना पड़ता था. काम-धाम कुछ था ही नहीं. खेती-बाड़ी जिसको थी वह भी महाजन के पास रेहन रखने के लिए मजबूर था. भुखमरी की नौबत आ गयी थी. जिसको खेत बाड़ी नहीं थी, अन्न-पानी नहीं था, मेहनत–मजदूरी का कोई जरिया नहीं था तो उसके लिए तो भुखमरी की हालत यूं भी पैदा हो जाती थी.
काम की तलाश में हम लोगों को कलकत्ता, सिलीगुड़ी, मैनागुड़ी, जलपाईगुड़ी, कूचबिहार, कोकराझार से लेकर गौहाटी या तिनसुकिया तक जाना पड़ गया था. वहां मिट्टी काटने का काम मिल जाता था. कुछ काम चाय बागान में भी मिल जाता था. जिसके हाथ में कोई हुनर नहीं था वह इसके अलावा कुछ कर भी नहीं सकता था. चाय बागान में दक्षिण बिहार के बहुत से आदिवासी काम करते थे तो थोड़ी सहूलियत हो जाती थी. जो दूर नहीं जा सकता था वह बनारस चला जाता था. लोकल काम हमारे इलाके में था ही नहीं. कार्तिक में जो लोग जाते थे वह फागुन में ही लौटते थे और एक महीना रह कर वापस चले जाते थे. ऐसा पहले भी होता था पर उन तीन सालों में कुछ ज्यादा ही हुआ था. जिसके घर में कोई कमाने वाला नहीं था उसके लिए तो भुखमरी इंतज़ार करती थी या फिर भीख मांगे. पानी के लिए कभी कोई झगड़ा नहीं हुआ. खेती होनी ही नहीं तो किस बात का झगड़ा होता? पीने के पानी की कोई दिक्कत हमारे यहाँ नहीं हुई थी. बड़े लोगों के कुएं थे और वह लोग पानी लेने देते थे. जात-पांत का भेदभाव गांधीजी ने हमारे यहाँ ख़त्म करवा दिया था. वह बहुत बड़े आदमी थे. वैसा आदमी न तो कभी जन्मा है और न जन्मेगा.
बगल के गौरिया कोठी में एक नारायण बाबू रहते थे जो कांग्रेस में थे. उनका घर अंग्रेजों ने जला दिया था. इस घटना के बाद यहाँ मोती लाल नेहरु के जो बेटे थे जवाहर लाल वह आये थे. राजेंद्र बाबू तो यहीं के थे, वह तो अक्सर आया-जाया करते थे. उनका तो घर ही था जीरादेई में जहां मेरी ननिहाल है.
सिंचाई का कोई प्रबंध था ही नहीं था, तो इसीलिए अकाल पडा था. अल्हुआ और सुथनी की फसल हमारे यहाँ एक बार ही होती थी. दूसरी फसल के लिए ज़मीन में नमी ही नहीं बचती थी. परिश्रम करने का मौका मिलता तब तो आदमी अपनी व्यवस्था कर ही लेता मगर उसका मौका ही नहीं था. मैं 1935 में कलकत्ता चला गया था और 93-B, चौरंगी रोड में रहता था तथा डेज़ मेडिकल में काम करता था और बाबू लोगों की दफ्तर में मदद करता था. एक बार नौकरी बदली भी थी. कुल मिला कर वहां 15 साल रहा फिर लौट आया. जैसे-तैसे मैंने लोगों के पैर पकड़ कर थोड़ी पढ़ाई कर ली थी तो कंपनी में काम मिल गया नहीं तो मैं भी मिट्टी ही काटता.
श्री मिश्री राय