बाढ़, सुखाड़ और अकाल की तलाश मुझे 86 वर्षीय प्रो.शैलेन्द्र श्रीवास्तव तक ले गयी जो मेरे पुराने परिचित हैं और पटना में अर्चना निकेतन, मीठा पुर, पटना में रहते हैं. उन्होनें मेरा 1951 की अकाल जैसी स्थिति से परिचय करवाया.
मेरा गाँव डीही सारण जिले के परसा थाने में पड़ता था और वह काफी फैल कर बसा था. एक घर के बाद एक गाछी थी वहां. गाँव के इर्द-गिर्द गंडक नदी का बाँध था जिसमें से एक तो गाँव के पास ही था. एक फैला हुआ संकुल था हमारा गाँव. आजकल यह गाँव मकेर प्रखंड में आ गया है. इस गाँव में कभी डीह (टीला नुमा ऊंची जगह) रहा होगा, जो मैंने कभी नहीं देखा. मेरे जन्म के समय भी वहाँ कोई डीह नहीं था. मेरे घर के सामने एक बहुत बड़ा मैदान था, शिवालय था और उससे लगा हुआ बाग़ था. हम लोग भी इस गाँव में बाहर से आये थे. गंडक नदी के उस पार मुज़फ्फरपुर जिले में रेवा घाट के पास एक शुभई गाँव है वही हम लोगों का मूल स्थान था. हमारे गाँव के एक बहुत बड़े विद्वान् थे अनिरुद्ध जी जो बाबा के मित्र थे और उन्हें भोजपुरी का वर्ड्सवर्थ कहा जाता था.
उस वक़्त अकाल जैसी स्थिति तो हो गयी थी क्योंकि पानी लम्बे समय से बरसा ही नहीं था. अनाज लोगों के पास ख़त्म हो गया था तो सरकार को अमेरिका और दूसरे देशों से अनाज मंगाना पड़ गया था. उसके साथ खर-पतवार वाली घास भी आई. हम लोगों के यहाँ चावल गेहूं बाजरा आदि बहुत कुछ अनाज राहत में बांटने के लिया आया था. कहते हैं कि अन्य जगहों पर लोगों की पसंद चावल थी मगर हमारे यहाँ लोगों ने गेहूं लिया. गाँव में एक जगह रोटियाँ बनती थीं और वहीं से ज़्यादातर लोग ले जाया करते थे अगरचे यह काम किसी को पसंद नहीं था. बहुत से लोग अपनी मर्यादा का ख्याल करके रोटी लेने आते नहीं थे. इसे उनके घर पहुंचा दिया जाता था. जिसके पास थोड़ा बहुत अनाज बचा हुआ था वह लोग तो साफ़ मना कर देते थे कि जिसके पास नहीं है पहले उसको दो.
"मैंने 1949 मैं मैट्रिक पास किया था और उसके बाद छपरा में रह कर राजेन्द्र कॉलेज में पढ़ाई कर रहा था. बीच-बीच में गाँव आता था. मेरे बाबा उस समय जीवित थे. हमारी स्थिति ठीक थी, इसलिए रोटियाँ कभी हमारे घर नहीं आयीं."
प्रोफ़ेसर शैलेन्द्र श्रीवास्तव