नहीं, बिहार में बाढ़ का प्रकोप नहीं बढ़ा है । वह तो बाढ़ का प्रभाव नापने की तकनीक बेहतर हो गई है। तीन साल पहले की पोस्ट...
1976 में जगजीवन राम जी के कृषि मंत्री रहते हुए देश में बाढ़ समस्या का अध्ययन करने के लिए राष्ट्रीय बाढ़ आयोग की नियुक्ति हुई. उसके उदघाटन भाषण में 4 दिसंबर, 1976 के दिन उन्होनें कहा कि, ‘इस बात का कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं मिलता है कि देश में बाढ़ का परिमाण बढ़ा है या कम हुआ है’ लेकिन उन्होनें इतना जरूर कहा कि बाढ़ से पहले जो नुकसान होता था वह कम इसलिए लगता था कि वह तत्कालीन मूल्यों पर निर्धारित होता था और वर्तमान में होने वाला नुकसान हमें इस लिए ज्यादा लगता है क्योंकि यह अनुमान मौजूदा मूल्यों पर आधारित होता है. इतने वर्षों में रुपये की कीमत घटी है, इसलिए नुकसान ज्यादा दिखाई पड़ता है. ‘1950 या 1960 के दशक में जितनी बाढ़ आती थी उसकी तीव्रता इधर बढ़ी है, इसका भी कोई निश्चित सबूत नहीं मिलता...मुमकिन है कि अब हमारी बाढ़ से हुए नुकसान का मूल्यांकन करने के तरीके और तकनीक बेहतर हुई हो.’
आयोग की रिपोर्ट आते-आते 1980 हो गया और तब पता चला कि 1952 में देश का बाढ़ प्रवण क्षेत्र हो 2.5 करोड़ हेक्टेयर हुआ करता था वह 1978 में बढ़ कर 3.4 करोड़ हेक्टेयर हो गया है. इसी दौरान बिहार का बाढ़ प्रवण क्षेत्र जो 1952 में 25 लाख हेक्टेयर था वह 1978 में बढ़ कर 42.6 लाख हेक्टेयर हो गया था.
2003 के बजट सत्र में पिछले वर्ष (2002) में बाढ़ से हुए नुकसान पर बिहार विधान सभा में बहस चल रही थी. अधिकांश वक्ताओं का मानना था कि जैसे-जैसे बिहार में बाढ़ से बचाव के लिए सरकार तटबंध बनाती जा रही है उसी रफ़्तार से बाढ़ से होने वाली क्षति भी बढ़ाती जा रही है. 2002 में प्रांत में कई जगह तटबंध टूटे थे और बाढ़ का प्रकोप बहुत बढ़ा हुआ था.
बहस का जवाब जल संसाधन मंत्री जगदानन्द सिंह ने देते हुए कहा कि जिस समय राष्ट्रीय बाढ़ आयोग ने राज्य के बाढ़ प्रवण क्षेत्र का अध्ययन किया लगभग उसी समय गंगा बाढ़ नियंत्रण आयोग ने भी बिहार के बाढ़ प्रवण क्षेत्र का अध्ययन किया और पाया कि बिहार का बाढ़ प्रवण क्षेत्र 64.61 लाख हेक्टेयर हो गया है. इसके पहले बिहार की तरफ से इस तरह का कोई मूल्यांकन नहीं किया गया था.
उन्होनें आगे कहा कि. ‘जब बिहार राज्य सिचाई आयोग 1994 में बना, इस सरकार ने बनाया, तब एक एक जगह का पूरा हिसाब-किताब लगा कर के जो इलाका हम लोगों ने लगाया, वह 68.80 लाख हेक्टेयर लगाया. कहने का मतलब ये कि यह बढ़ा नहीं, यदि हम अपनी समस्याओं को स्वयं न समझें और हमारी समस्याएं दूसरे भी न समझ पाएं और हम उन्हीं अंकों को दिमाग के भीतर ले लें और यह मान लें कि तटबंध बढ़े और इलाका बढ़ा है (तो यह) गलत, बिलकुल गलत, तटबंध बनाने से इलाका नहीं बढ़ा. जैसे-जैसे माईन्यूट ऑब्जरवेशन, जिस तरह से डिटेल और विस्तार में हम चले गए, उस तरह से हमनें बिहार की पूरी समस्याओं का इस तरह से आकलन किया और वह आकलन 68.8 लाख हेक्टेयर, एक भी एकड़ जो बाढ़ प्रवण इलाका नहीं था उसमें कोई बढ़ोतरी तटबंधों के निर्माण के चलते नहीं हुई.’
सवाल इस बात का है कि सारी पहल तो देश और राज्य के स्तर तटबंधों के निर्माण को ही लेकर हुई थी और अभी भी हो रही है फिर दोष किसे दिया जाए? बिहार में 1952 में 160 कि. मी. लम्बे तटबंध थे नदियों के किनारे जो 2002 में बढ़ते बढ़ते 3454 कि. मी हो गए थे. बीच में जो हुआ तो सबके सामने है.
2008 में जो कुसहा में तटबंध टूटा था उसकी वजह से सरकार के अनुसार 4.153 लाख हेक्टेयर जमीन पानी में चली गयी थी. उसको अगर जोड़ दें तो राज्य का बाढ़ प्रवण क्षेत्र 72.953 लाख हेक्टेयर हो जाता है. यह सुधार सरकार ने अभी तक किया नहीं है. सरकारी दस्तावेजों में अभी भी 68.8 लाख हेक्टेयर ही चल रहा है.
कल को इसे भी कोई कह देगा कि यह इलाका बढ़ा नहीं है, मूल्यांकन की नयी तकनीक विकसित हुई है और इस इलाके में बाढ़ तो आयी ही नहीं थी.