बिहार- बाढ़- सुखाड़- अकाल
पारस नाथ सिंह, आयु 86 वर्ष, ग्राम कौसर, पंचायत गभिरार, प्रखंड रघुनाथपुर, जिला – सिवान से हुई मेरी बातचीत के कुछ अंश।
हमारा गांव घाघरा नदी के बाएँ किनारे पर स्थित है और यह नदी 1953 में मुक्त थी और उसका पानी बाढ़ के मौसम में दियारे में फैलता था। बहुत पानी हो जाने पर हम लोग शरण लेने के लिए गांव के डीह पर चले जाते थे। पानी ज्यादा दिन तक टिकता नहीं था। नदी के मुक्त रहने से बहुत परेशानी नहीं होती थी।
लेकिन जब उत्तर प्रदेश ने अपने इलाके में 1960 के आसपास तटबंध बनाना शुरू किया तब जो पानी दक्षिण में निकल कर उनके इलाके में फैलता था उसने हमारी तरफ का रुख किया। तब बिहार में बाढ़ की स्थिति बिगड़ने लगी। तब यहाँ भी तटबंध बनाने की बात उठी। 1960 के दशक में ही यहाँ भी तटबंध के काम में हाथ लगा। बाँध नहीं था तब पानी का लेवल कम रहता था क्योंकि पानी को फैलने का मौका मिल जाता था। अब तटबंधों के अन्दर नदी के पानी का लेवल बेतरह बढ़ने लगा और उसके कंट्रीसाइड में जल-जमाव होने लगा।
नदी के दोनों ओर बाँध बन जाने के बाद पानी की निकासी पर असर पड़ा और दियारे में रहने वालों की मुसीबतें बढ़ गयीं। उनकी खरीफ की फसल तो पहले भी नहीं होती थी और अब तो उसका सवाल ही नहीं उठता था। अब उनको बरसात के मौसम में वहाँ से जल्दी हटना पड़ता है और देर तक बाहर रहना पड़ता है। हम लोगों के यहाँ तटबंध के साथ-साथ बाहर वाली पट्टी में भीषण जल-जमाव रहता है और इसकी वजह से ज़मीन पर होने वाली फसल पर बुरा असर पड़ता है।
1971 में यहाँ बहुत बड़ी बाढ़ आयी थी और उस साल यह तटबंध अब-तब की स्थिति में पहुँच गया था। अगर वह टूट जाता तो बहुत बड़ी तबाही होती मगर समय रहते सरकार ने उस पर मिटटी देना शुरू कर दिया था और तटबंध को बचा लिया गया था। तटबंध के बाहर वाले क्षेत्र में जहां जल-जमाव नहीं रहता है वहाँ लाभ पहुंचा है क्योंकि तटबंध सुरक्षित रहता आया है।
श्री पारस नाथ सिंह