तपेश्वर भाई, ग्राम-पो.-जगतपुर वाया झंझारपुर, जिला मधुबनी से हुई बातचीत के कुछ अंश, भाग 2
छोटी-छोटी नदियों के सामने बाँध बना कर लोग अपने खेतों में पानी ले जा कर सिंचाई करते थे. बहुत सा काम तो गाँव वाले श्रमदान से कर लिया करते थे. जिस भी काम का फैसला हो जाता था कि करना है तो उसके लिए दिन और स्थान तय कर लिया जाता था और सब लोग जुट कर कर लेते थे. हमारे गाँव के बगल से गेहुमा नदी बहती थी जिस पर बाँध बना कर पानी की दिशा मोड़ दी जाती थी और चिह्णित खेतों तक पानी पहुंचा दिया जाता था. कहीं-कहीं कड़ीन से सिंचाई हो जाती थी, तो कहीं-कहीं कनस्तर से इसी तरीके से सिंचाई हो जाती थी. इस काम में मेहनत जरूर पड़ती थी मगर सिंचाई हो जाती थी. 1950-52 में तो नदी भी सूख गयी थी और पानी कहीं था ही नहीं कि कड़ीन चल सके. कुएं, तालाब भी सूख गए थे. पीने के पानी की व्यवस्था कुओं से ही होती थी और जैसे-तैसे काम चलाना पड़ता था. मुझे याद है उस समय हमारे यहाँ एक चापाकल गाड़ा गया था जिस पर सात सौ रुपया खर्च हुआ था. आज के हिसाब से उसकी कीमत डेढ़ लाख रुपये होगी. 130 फुट नीचे जाकर पानी मिला था. आजकल यह 200 फुट से नीचे चला गया है.
गरीबों पर अकाल की मार बहुत ज्यादा पडी थी. बहुत कुछ तो अल्हुआ ने जान बचाई थी. इस अकाल में उसकी खेती को काफी बढ़ावा मिला था. मडुआ गरीबों का भोजन था जिसमें पानी बहुत कम लगता था. आजकल इसे रईस लोग खाते हैं. उन दिनों खेसारी और अरहर की फली उबाल कर भी खाना पड़ गया था. कोदो यहाँ नहीं होता था पर सावाँ होता था जिसे जानवरों को खिला दिया जाता था. उसका दाना झाड़ कर उबाल कर चावल की तरह भी खाते थे. अब यह सब ख़त्म हो गया है.
भुखमरी कि केवल नौबत ही नहीं थी, लोग भुखमरी से मरते भी थे भले ही सरकार उसे कबूल न करे. सरकार हमेशा किसी न किसी बीमारी का नाम बता कर मृत्यु का जिम्मा लेने से अपने को बचा लेती थी. हमारे गाँव में एक भुजंगी पासवान था जिसकी हालत अकाल में बहुत खराब हो गयी थी और वह मारा गया. मैं कभी-कभी उसकी मदद करता था पर वह काम भी नहीं करना चाहता था. 1952 में उसकी मौत भूख से ही हुई मगर सरकार ने उसकी मौत को दवा का अभाव बता कर अपना दामन झाड़ लिया था.
बच्चे बेचने की कोई घटना हमने नहीं सुनी थी मगर कोई आदमी अगर बच्चे को ले जाकर कुछ काम के बदले उसके रहने, खाने-पीने और कपड़े का इंतजाम कर दे और बच्चे को जरूरत के समय जाने दे तो लोग उसे दे दिया करते थे. इससे माँ-बाप बच्चे की जिम्मेदारी से कुछ समय के लिए मुक्त हो जाते थे कि बच्चे का पेट पल रहा है. बच्चियों का शोषण दूसरे तरीके से चलता था और वह सामंती व्यवस्था का अंग था. अकाल न हो तब भी वह शोषण तो रुकता नहीं था. इसके खिलाफ हम लोगों ने लम्बी लड़ाई लड़ी थी. दबंगों का कब्ज़ा तालाबों जैसे सार्वजनिक महत्व की चीज़ों पर भी चलता था. हमें अपने गाँव के चार एकड़ के तालाब को नाजायज़ कब्ज़े को हटाने की भी लड़ाई लड़नी पड़ी थी तब यह पुनः समाज के कब्ज़े में आया.
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श्री तपेश्वर भाई