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कोसी नदी अपडेट - बिहार बाढ़, सुखाड़ और अकाल, वर्ष (1950-52), तपेश्वर भाई से हुयी बातचीत के अंश, भाग - 1

  • By
  • Dr Dinesh kumar Mishra
  • July-08-2020
तपेश्वर भाई, 86 वर्ष, ग्राम -पोस्ट जगतपुर, जिला मधुबनी से हुई मेरी बातचीत के कुछ अंश...

1950-52 में जो अकाल जैसी हालत हो गयी थी, उस समय धान की फसल तो प्रायः पूरी-पूरी ही मर गयी थी. भदई धान भादों में कट जाता था और उसी समय अगहनी धान बो दिया जाता था मगर 1950 और 1951 में दोनों किस्म के धान मर गए थे. 1952 में कुछ बारिश हुई तब थोडा बहुत धान हुआ था. हमारा परिवार किसानों का है और पिताजी खेती ही करते थे. किसान तो मुसीबत मैं फंसे ही थे और किसान का मतलब ही होता है कि मजदूर भी उनके साथ हैं. खेती जल जाने से उनका रोज़गार ख़तम हो गया और पलायन का उन दिनों उतना रिवाज़ नहीं था. बहुत जरूरत पड़ने पर मजदूर मोरंग चले जाते थे जो एक तरह से बंगाल का हिस्सा माना जाता था. वहाँ जाकर अक्सर मजदूर बीमार पड़ जाते थे और उनका लीवर खराब हो जाता था और वह वापस लौट आते थे. ज्यादा दिन उधर रह जाने से उनका जीवन बहुत कठिन हो जाता था. यहाँ की हालत ऐसी हो गयी थी कि आधा मन या दो पसेरी धान के लिए दिन भर महाजन के दरवाज़े पर बैठे रहने के बाद इतना धान क़र्ज़ के तौर पर मिल पाता था. सरकार भी उन दिनों किसानों के लिए कुछ कर नहीं पाती थी. ऋण भी अगर किसान को मिलता था तो वह भी ज़मीन वालों को ही मिलता था. यह स्थिति 1950-52 के बीच थी तो 1957-58 में भी ऐसा ही हुआ था.

1950-52 में देश को विदेशों से अनाज मंगवाना पड़ गया था और उसमें चावल बहुत कम आता था, केवल मकई, गेहूं, बाजरा आदि ही आता था. यहाँ चावल खाने वाले लोग ही थे. बाजरा खाने की तो किसी को आदत ही नहीं थी. ज्यादा खा लें तो पेट गड़बड़ हो जाता था पर मजबूरी थी तो क्या करते? कुछ खजूर भी राशन के कोटा में मिलता था जो अभी सुन कर बड़ा अजीब लगता है कि गेहूं, बाजरे के साथ खजूर का क्या मेल है. लेकिन वह बिकता था और लोग खरीदते भी थे. यह बात अलग है कि राशन का अनाज सबको नहीं मिलता था.

गरीबों के लिए सूती धोती / साड़ी दुकानों में आती थी और वह भी बड़ी मुश्किल से मिलती थी. कपड़े की तो बेहद कमी थी, औरत, मर्द सभी के लिए. अच्छा यही था कि शादी-ब्याह में बहुत कम खर्च होता था. एक अच्छे किसान के घर में भी शादी चार-पांच हज़ार रुपये में हो जाया करती थी. आम घरों में चार-पांच सौ रुपये में शादी हो जाती थी. ज़मीन की कीमत 20 रुपये कट्ठा थी यानी 200 रुपये प्रति एकड़ जो आजकल पांच लाख रुपये की हो गयी है. वह उस समय सौ-दो सौ रुपये एकड़ में मिल जाती थी. यह भी साधारण वर्षों में ही होता था, अकाल में तो ज़मीन का दाम और भी ज्यादा गिरता था क्योंकि खरीदने वाले घट जाते थे. घर में कोई काम हो, प्रयोजन हो तो अच्छी-खासी ज़मीन यूँ ही निकल जाती थी. ज़मीन की उतनी कठिनाई नहीं थी जितनी पैसे की थी और इसका मुख्य कारण भी अनाज और कपड़ा ही हुआ करता था. बच्चों की पढ़ाई का खर्च और उनकी फीस देना मुश्किल होता था. गरीब तो अपने बच्चों को स्कूल भी नहीं भेज पता था, उसके बच्चे तो गाँव के स्कूल से आगे जा भी नहीं पाते थे. सिंचाई की कोई व्यवस्था हमारे इलाके में सरकार की तरफ से नहीं थी.

क्रमश:

श्री तपेश्वर भाई

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