बिहार बाढ़-सूखा-अकाल
श्री केदारनाथ झा, आयु 92 वर्ष, ग्राम बनगाँव, प्रखंड कहरा, जिला सहरसा से हुई मेरी बातचीत के कुछ अंश।
"उस साल यह पानी तो आश्विन-कार्तिक महीनों तक रह गया था...।"
मुझे 1948 और 1949 की बाढ़ के बारे में अच्छी तरह स्मरण है। हमारे गाँव के पश्चिम में धेमुरा, गोरहो और हरिसंखी नदी बहती थी और इन तीनों के बाद थी कोसी। उधर गाँव के पूरब में बढ़िया धार और फिर उसके बाद हुआ करती थी तिलावे। तिलावे हमारे गाँव के हाई स्कूल के पूरब बहती थी। हमारा गाँव इन सबके बीच में पड़ता था और हम लोग हर तरफ पानी से घिर जाया करते थे।
ऐसा आज भी होता है। हमारे गाँव की जमीन ऊँची है इसलिये पानी से घिर कर हमारा गाँव टापू भले ही बन जाये पर बाढ़ का पानी कभी गाँव में प्रवेश नहीं करता था। उस साल यह पानी तो आश्विन-कार्तिक महीनों तक रह गया था और उसके बाद ही उतरना शुरू हुआ था।
उस साल हमारी सारी धान की खेती इन नदियों के पानी में डूबी हुई थी। धान अन्तत: हुआ ही नहीं। रब्बी की फसल हमारे यहाँ वैसे भी नहीं होती थी। हमारे गाँव की ऊँची जमीन में धान, मड़ुआ, मूंग और कुर्थी हो जाती थी। गेहूं-चना वगैरह कुछ नहीं होता था। इस बाढ़ के बाद हमारे यहाँ कांस-पटेर का जंगल उग आया था जिसकी सफाई करने के लिये पटना से ट्रैक्टर मंगवाया गया था और जमीन साफ की गयी थी। तब उस साफ की गयी जमीन पर रब्बी में गेहूं और चने की खेती शुरू हुई।
हमारे यहाँ बाढ़ का पानी 1942 से ही आना शुरू हो गया था। उसके पहले हमारे यहाँ बाढ़ नहीं आती थी। कोसी पर बाँध बनने के बाद से तो अभी भी किसी न किसी सूरत से बाढ़ आती ही रहती है। इस साल (2020) भी हमारा करीब ढाई बीघा खेत, जो गाँव के दक्षिणी भाग में है, पानी में डूबा हुआ है।
1942 के बाद जो पानी हमारे यहाँ आना शुरू हुआ था उसके साथ किस्म-किस्म की मछलियाँ भी आयीं जिन्हें हम घुटने भर पानी में घेर लेते थे और पकड़ कर घर ले आते थे। नदी का पानी हमलोगों की आवाजाही पर असर डालता था मगर मछलियाँ खूब मिलती थी खाने को। फिर जमीन में धान उपज जाये और मड़ुआ हो जाये तो आनन्द में पहुँच जाते थे। दूध-दही तो था ही।
हम लोगों की जरूरतें उन दिनों बहुत ही कम थीं। आज की तरह भागमभाग का माहौल नहीं था। फैशन का नामोनिशान तक नहीं था। जिसके पास जेब में 10 रुपये होते थे वह मूंछ ऐंठ कर चलता था किउसके पास 10 रुपये हैं। एक रुपये में 17 किलो दूध मिलता था। कोसी तटबन्ध पर जब काम शुरू हुआ था तो हमने भी वहाँ कुछ दिनों तक श्रमदान किया था।
श्री केदारनाथ झा