बिहार की 1953 की बाढ़,
बच्चा जब तक रोए नहीं, मां भी दूध नहीं पिलाती.
1953 में बिहार में एक भयंकर बाढ़ आई थी, जिसकी चपेट में लगभग पूरा बिहार आ गया था. यूँ तो बचे-खुचे बुजुर्ग लोग 1954 की बाढ़ को सबसे भयंकर बताते हैं मगर 1954 की बाढ़ मुख्यतः उत्तर बिहार तक सीमित रह गई थी. दक्षिण बिहार पर इसका उतना ज्यादा असर नहीं पड़ा था. 1954 के साथ एक परेशानी और थी कि जानलेवा बाढ़ के बावजूद उस साल हथिया का पानी नहीं बरसने से अंततः धान की फसल मारी गई थी और साल का अंत सूखे से हुआ. 1954 की बाढ़ को प्रसिद्धि इस लिये भी मिल गई थी क्योंकि उस साल तब तक का कोसी का सर्वाधिक प्रवाह देखा गया था और कोसी परियोजना जोरों से चर्चा में थी और उसके चलते देश के बड़े नेताओं का कोसी क्षेत्र में आना-जाना लगा हुआ था.
1953 में भी बिहार में बाढ़ की स्थिति बहुत खराब थी, लेकिन उस साल मद्रास प्रांत के गोदावरी घाटी में भी भयंकर बाढ़ आई थी पर उसकी तीव्रता बिहार से कम ही थी और उस बाढ़ ने पूरे प्रांत को प्रभावित नहीं किया था. उस समय चक्रवर्ती राजगोपालाचारी वहाँ के मुख्यमंत्री थे. राज्य के प्रचार विभाग ने वहाँ की बाढ़ की फोटो और लोगों की दुर्दशा के चित्र भेज- कर केन्द्र सरकार के मंत्रियों, संबंधित दफ्तरों और उनके अधिकारियों को आश्वस्त करने में कामयाबी हासिल कर ली थी कि गोदावरी घाटी में इस साल जैसी बाढ़ आई है वैसी बाढ़ का अब तक कोई इतिहास नहीं है और इसी के अनुपात में वहाँ तबाही भी हुई है. नतीजा यह हुआ कि केन्द्र सरकार की सारी मदद उस तरफ जाने लगी और बिहार सरकार इस बात से अनजान तमाशा देखती रही. राजाजी ने एक तीर से दो निशाने साधे. एक तो केन्द्र सरकार से मिलने वाली सारी मदद को अपनी तरफ खींच लिया और दूसरी तरफ और अपनी अस्मिता को लेकर तेलुगु और तमिल भाषियों के बीच जो खराश चल रही थी, उस पर भी उन्होंने मरहम-पट्टी कर दी.
सर्चलाइट-पटना अपने 4 सितंबर, 1953 के संपादकीय में लिखता है कि,
"केन्द्रीय राजधानी का बिहार की समस्या की अनदेखी का पूरा दायित्व बिहार सरकार का है जो पूरी तरह से भूल गई कि राज्य में बाढ़ से तबाह हुई, यहाँ की जनता की बदहाली और उनकी तकलीफों को दिल्ली सरकार तक पहुंचाने का जिम्मा उसी का था... बिहार इस समय वहाँ अपनी बात रख सकने के लिए बहुत ही अच्छी स्थिति में था. इस समय एक बिहारी भारतीय गणराज्य का राष्ट्रपति है. बिहार के दो अन्य लोग केन्द्रीय मंत्रिमंडल में मंत्री हैं. केन्द्र मे इतने महत्वपूर्ण पदों पर बिहार की उपस्थिति के बावजूद वहां मंत्रिपरिषद में बिहार की घटनाओं के प्रति कोई संवेदना इसलिए नहीं जगाई जा सकी क्योंकि बिहार सरकार की तरफ से कोई दबाव ही नहीं डाला जा रहा था. एक कहावत है कि बच्चे को बहुत प्यार करने वाली माँ भी उसे तब तक दूध नहीं पिलाती है जब तक वह रोता चिल्लाता नहीं है. नियम यही है कि जो बच्चा रोता नहीं है वह बच्चा भूखा नहीं है और उसे दूध की जरूरत नही है. ऐसा लगता है कि यह साधारण सी बात बिहार सरकार के ध्यान में ही नहीं आई कि उसकी राहत की जरूरतें इस समय आन्ध्रप्रदेश से कहीं ज्यादा थी."
इसके बाद राज्य सरकार ने राज्य में बाढ़ से हुए नुकसान का अनुमान लगाना शुरू किया जो सितंबर महीने के शुरू में 21 करोड़ रुपये आंका गया और जिलों से लगातार सूचनाएँ मिलते रहने के कारण माह के मध्य में 35 करोड़ रुपयों पर जाकर टिका. क्योंकि सूचनाओं का आना तब भी थमा नहीं था इसलिए इसके और भी ज्यादा बढ़ने की उम्मीद थी. अभी तक टूटे तटबंधों, सड़कों, पुलों और कलवर्टों को हुए नुकसान का अन्दाज़ा लगाया जाना बाकी था. वैसे भी इस साल की बाढ़ हर साल आने वाली बाढ़ से अलग थी, एक प्रलय के समान थी और इसने अधिकारियों को साफ़ सन्देश दे दिया था कि अस्थायी तौर पर कुछ रिलीज़ बांट देने से काम नहीं चलेगा. हर साल होने वाली तबाही को ध्यान में रखते हुए लम्बी अवधि के कार्यक्रमों की बित करनी पड़ेगी करोड़ों उजड़े हुए लोगों को वापस उनकी पुरानी जीवनचर्या में लौटाया जा सके.
अख़बार अपने 18 सितम्बर के संपादकीय में फिर आगाह करता है कि राहत कार्यों के लिए 4 करोड़ रुपयों की मांग की गई है और बाकी रकम इन्फ्रास्ट्रक्चर पुर्नस्थापित करने के काम आयेगी. अगर केन्द्र सरकार अपने स्तर पर इस पैसे की व्यवस्था नहीं कर सकती तो उसे चाहिए कि दूसरे राज्यों से भारत की एकता का वास्ता देते हुए मदद के लिए आगे आने को कहे. अंतर्राष्ट्रीय संस्थानो से भी आग्रह किया जाये कि वह बिहार की असाधारण परिस्थिति को देखते हुए मदद के लिए आगे आएं. सारे बाहरी संसाधनों के आने या मिलने के पहले यह जरूरी है कि बिहार अपने आंतरिक स्रोतों के माध्यम से उत्तर बिहार की रक्षा करे.
सर्चलाइट आगे सुझाता है कि राज्य मंत्रिमंडल का एक-एक मंत्री अलग-अलग जिलों में बैठ कर राहत कार्यों का संचालन करे.