आज जिउतिया (जीवित पुत्रिका व्रत ) का पर्व है। इसी दिन 1961 में तत्कालीन मुंगेर (वर्तमान लखीसराय) जिले में एक बहुत ही हृदय विदारक घटना हुई थी। भयंकर वर्षा और उससे पैदा हुई बाढ़ ने कई गांवों को उजाड़ दिया था। नदियामा उनमें से एक था। उस तबाही की कहानी उस गांव के एक भुक्तभोगी के हवाले से लिख रहा हूं।
प्रभा शंकर प्रसाद सिंह (आयु 76 वर्ष) ग्राम नदियामा, जिला लखीसराय बताते हैं कि 1961 में जो बाढ़ आयी थी वह आश्विन मास का जिउतिया (जीवित पुत्रिका व्रत) का दिन था। गांव में उत्सव का माहौल था। पिछले कई दिनों से हथिया नक्षत्र की घनघोर बारिश हो रही थी। दो अक्टूबर के दिन खड़गपुर झील के बांध का एक हिस्सा टूट जाने से अनिष्ट की खबरें हम लोगों को मिल रही थीं।
बाढ़ का पानी गांव में दिन में सात बजे आना शुरू हुआ और लगभग तीन घण्टे में दस बजे के करीब कमर से लेकर छाती तक भर गया था। पूरा गांव इस पानी से ध्वस्त हो गया था। उस समय ज्यादातर मकान मिट्टी के बने हुए थे वह सब बैठ गये। पक्के मकान भी थे पर उनकी संख्या अधिक नहीं थी। 85 घर का एक हिस्सा गाँव के बाहर था जो मुसहर टोला था।
गाँव के पूरब में एक स्कूल था और वह भी कच्चा ही था, मिट्टी का बना हुआ जिसके ऊपर खपड़े की छत थी। मुसहर टोला के बाशिन्दे स्कूल में बचाव के ख्याल से शरण लेने के लिये आ गये। इधर पानी अपनी रफ्तार से बढ़ रहा था। जब मुसहर टोला वाले वह सब स्कूल में पहुँच गये तब स्कूल की छत बैठ गयी और सब का किस्सा ही खत्म हो गया।
यहाँ कई परिवारों के पास बैलगाड़ी थी तो रस्सी वगैरह का इन्तजाम सबके पास था। पानी जब घरों में घुसने लगा तब घरों में जो चौकी थी उसी में रस्सी बाँध कर छप्पर को सम्हालने के लिये मोटी लकड़ी की जो धरन होती है, उसी में चौकी को बाँध कर लटका दिया गया था और परिवार के सदस्य उसी चौकी पर पानी से बचने के लिये बैठ गये। भागने का कोई रास्ता तो था नहीं। गाँव में चार पाँच पक्के मकान भी थे तो बहुत से लोग उनकी छतों पर चढ़ गये। कुछ ऊंची जमीन भी थी, जो वहां भाग पाया वह बच तो गया पर बारिश के बीच खुले में रहने को मजबूर था। बारिश अभी भी हो रही थी तो ठंड से बचने के लिये कपड़े का घरों में बना हुआ जो बिछौना होता है उसी को ओढ़ कर लोग बैठे हुए थे। खाने-पीने का कोई ठिकाना नहीं था क्योंकि वहाँ तो जान पर बनी थी।
इस बीच किउल-गया रेलवे लाइन के बीच कछियाना गाँव के पास इस लाइन में एक पुल बना हुआ था और बाढ़ का पानी उधर भी जा रहा था। बाढ़ का पानी गाँव के स्कूल को पहले ही तोड़ चुका था, रात में उसने कभी रेल लाइन के पुल को भी तोड़ दिया। वह पुल जब टूटा तब पानी उधर से निकलने लगा और हमारे यहाँ से पानी का लेवल घटना शुरू हुआ। दूसरे दिन सुबह गाँव में पानी बहुत घट गया था और लोगों की जान किसी तरह बची।
इस दुर्घटना की कोई जानकारी या चेतावनी पहले से किसी को नहीं थी और न पहले कभी ऐसी घटना घटी थी। कहाँ से हम लोग इसके लिये तैयार रहते और कौन इसकी पहले से सूचना देता?
स्कूल में मुसहर टोला के जो लोग थे वह तो सब छप्पर के नीचे दब गये और जो किसी तरह निकल भी पाये होंगे वह बाढ़ के पानी में बह गये। एक सौ से अधिक लोग उस समय स्कूल में थे। दो-तीन लोग बचे। उस टोले की एक जवान लड़की, रोपती कुमारी, किसी तरह से स्कूल से बाहर निकली तो एक पेड़ सामने से बह रहा था। वह उसी की डाल पर किसी तरह बैठ गयी और पेड़ बहते हुए नीचे 4-5 कोस आगे एक आलापुर गाँव पड़ता है, वहाँ किनारे लग गया और वहाँ गाँव वालों ने उस लड़की को देख लिया और जैसे-तैसे उसे बचा लिया। इसी तरह जब स्कूल की छत गिरी तो उसका वजन संभालने के लिये दोनों दीवारों पर मोटी-मोटी लकड़ियों को रखा गया था। उन्हीं धरन की लकड़ियों में से एक लकड़ी कुछ इस तरह से गिरी कि उसका एक सिरा दीवार पर टिक गया और दूसरा सिरा एकदम फर्श पर जा टिका। वहीं एक अन्धा आदमी जिसका नाम बृहस्पति माझी था अपनी पत्नी के साथ बैठा हुआ था। उसकी पत्नी भी अन्धी थी। यह दोनों लकड़ी के तिरछा गिरने से उसके नीचे बैठे रहने के कारण बच गये और बाद में वह दोनों उसी लकड़ी पर बैठ गये।
पानी उतरने के बाद उन दोनों का पता लगा। हथिया नक्षत्र का पानी तो खूब बरस रहा था। जिउतिया की पूड़ी जिस दिन खायी गयी थी उस दिन जोर से पानी बरस रहा था दूसरे दिन उपवास था और पानी तब भी बरस रहा था। दिन के सात बजे के करीब गाँव में पानी घुसना शुरू हुआ और दस बजे के करीब तो बाढ़ का पानी घरों पर दस्तक देने लगा था। 24 घंटे तक तो धुआंधार बारिश होती रही थी और 48 घंटे बाद पानी निकलना शुरू हुआ जब कछियाना का रेलवे पुल टूटा।
उन दिनों बिनोदान्द झा बिहार के मुख्यमंत्री थे और यह इलाका भी उन्हीं का था। सहायता के रूप में चौथे-पाँचवें दिन से, जब मुख्यमंत्री यहाँ आये थे, तब पहले बचे हुए मुसहर परिवारों को कम्बल, मूढ़ी, दियासलाई, मिट्टी का तेल आदि दिया गया और बाकी लोगों को सहायता बाद में मिली। मुसहरों को बाद में कोयला भी दिया गया था ताकि वह खुद ईंटें बना कर अपना घर बना लें। मुख्यमंत्री के आने के पहले गाँव में कमिश्नर, कलक्टर और दूसरे बड़े अफसर आ चुके थे। यहाँ गाँव में मीटिंग हुई थी जिसमें मुख्यमंत्री ने आश्वासन दिया था कि नदियामा को आदर्श ग्राम बनाया जायेगा, जिसमें सारी मूलभूत सुविधाएं दी जायेंगी पर हुआ कुछ नहीं।
बाढ़ का पानी क्या था, वह तो मिट्टी का घोल था। पानी को जो करना था वह कर के निकल गया। धान डूब जरूर गया था मगर पानी जल्दी ही निकल जाने से बच गया। 8-9 फुट ऊँचा पानी आया था। महिसौरा, नदियामा, सिसमा तो डूबे ही थे पर पानी बिहटा में भी घुसा था जहाँ कोई खास नुकसान नहीं हुआ था। पानी निकल जाने के बाद आदमियों और जानवरों की लाशें जहाँ-तहाँ बिखरी हुई थीं और चारों ओर भयंकर दुर्गंध फैली हुई थी। महामारी फैलने का डर सबको सता रहा था। सरकार की तरफ से दवा छिड़कने का काम बड़े पैमाने पर हुआ और लाशों को ठिकाने लगाने के लिये होमगार्ड के दो सौ जवान यहाँ काम पर लगे थे।
हम लोगों के घर का अनाज, बीज सब बरबाद हो गया। सिंचाई का साधन यहाँ वैसे भी नहीं था, बोरिंग कुछ लोगों के पास थी मगर पम्प वगैरह तो सब पानी में डूब चुका था। बिना मरम्मत के वह काम नहीं करता और मरम्मत के लिये पैसा चाहिये जो इन परिस्थितियों में किसी के पास नहीं था। ऐसे में खेती कहाँ से होती? सरकार ने कुछ लोगों को बीज दिया था पर बीज डालने का समय होता है। समय से बीज न मिले तो उसका होना या न होना सब बराबर है। रेल पुल की मरम्मत कर के गाड़ी चलने लायक बना दिया गया था पर सेवा सामान्य होने में छ: महीने से ज्यादा समय लग गया था।
श्री प्रभा शंकर सिंह