अभी 30 सितम्बर को मैंने श्री दुबे जी को फोन पर उनका हाल-चाल जानने का प्रयास किया. उनका घर पटना में पाटलिपुत्र कॉलोनी में है और उन्होनें इस कॉलोनी की दुर्दशा के बारे में मुझे बताया था. इसके पीछे मेरा अपना स्वार्थ भी था. उन्होनें जो कुछ पिछले साल मुझे बताया था मैं उसे सार्वजनिक करना चाहता चाहता था और इसके लिए मुझे उनसे इजाज़त लेनी थी. आगे की बात उन्हीं के शब्दों में कहना चाहता था और उन्होंने मुझे जो कुछ बताया वह उन्हीं के शब्दों में यहाँ लिख रहा हूँ.
हम लोग तो पुराने टापू में पड़े हुए हैं. यहाँ तो करीब हर घर में पानी है. कहीं भी एक डेढ़ फुट से शायद ही कम हो. पाटलिपुत्र कॉलोनी की मुख्य सड़क पर ढाई फुट पानी है और लोगों का घर से बाहर निकलना मुहाल है. हमने क्योंकि बहुत बाद में यहाँ घर बनाया और इस कॉलोनी में बरसात में पानी भर जाने की कहानियां बहुत सुन रखी थी इसलिए जितना प्लिंथ ऊंचा कर सकते थे किया भी. फिर भी आज पानी मेरे घर के प्लिंथ से सिर्फ तीन इंच नीचे है. थोड़ा और बढ़ जाये तो मेरे घर में भी पानी प्रवेश कर जाएगा. गनीमत है तो बस इतनी कि पिछले 12 घंटे से पानी नहीं बरस रहा है तो अब पानी का लेवल डेढ़ इंच घटा है. अगर वर्षा रुकी रही तो पानी कुछ और घटेगा.
"इस समय बिहार, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल आदि पर बादल छाये हुए हैं. यही स्थिति 1975 में भी थी. यहाँ अभी भी पटना शहर और आसपास के गाँवों की हालत बहुत खराब है पर 1975 लैंडमार्क है, उस तरह की त्रासदी तक अभी बात नहीं पहुंची है. मेरी कामना है कि यह वहाँ तक फिर कभी न पहुंचे.”
मैंने उनसे पिछले साल हुई बातचीत को फेसबुक पर डाल कर सार्वजनिक करने की इजाज़त मांगी तो उनका कहना था कि, ”आप मुझे शर्मिन्दा कर रहे हैं. आपने हमसे उस समय की जानकारी मांगी और हमको जितना याद आया उसे आपको बताया. आप हमारे हवाले से उस समय की स्थिति को इतने लोगों तक पहुंचायेंगें यह हमारे लिए ख़ुशी की बात है. यहाँ तो दुनिया इतनी खुदगर्ज़ हो गई है कि दूसरे की कही बात को अपने नाम से लिखती है और छाप भी देती है और आप हैं कि इजाज़त मांग रहे हैं. हालत यह है कि आपके किसी काम या विचार का श्रेय देने की आदत ही समाप्त हो रही है. जैसे ही मौक़ा मिल जाए आप के काम का श्रेय लेने की होड़ सी मच जाती है.
हम लोग, मैं और गोपालाचारी, 13 दिन तक 1975 की बाढ़ के समय घर नहीं जा पाए थे. सारा समय नाव पर या पानी में रहे. यह हमारा कर्तव्य था और हम किसी पर कोई एहसान नहीं कर रहे थे. इतने दिन पानी के साथ रहने के कारण हम दोनों के पाँव बुरी तरह फूल गए थे. जो हाफ़ पैंट हम लोगों ने पहन रखी थी उसे काट कर पैर निकालना पड़ गया था. प्रशासन में वही सेवा भावना होनी चाहिए. अब वर्तमान स्थिति क्या है यह तो आप लोग या जनता ही बताएगी. NDRF और SDRF की टोलियाँ उतार दी गई हैं मगर, मैं समझता हूँ कि प्रशासन से उन्हें जो मदद मिलनी चाहिए थी वह मिल पा रही है या नहीं कि वह अपना काम दक्षता पूर्वक कर सकें इसका मूल्यांकन तो बाद में होगा.
“मुझे यहाँ एक हाईकोर्ट के जज साहब ने फोन किया कि वह कहीं पानी में फंसे है और वह चाहते थे कि मैं उनको वहाँ से निकालने में उनकी मदद कर दूं. मैंने कई बार सम्बद्ध लोगों को फोन किया. हर बार यही जवाब मिलता था कि बस अभी करवा देते हैं, अभी भिजवा देते हैं. बाद में जब कुछ नहीं हुआ तो मैंने ही किसी तरह एक ट्रेक्टर को ट्रेलर के साथ भिजवाया तो जज साहब निकल पाए. जब हाईकोर्ट के जज की यह हालत हुई तो आम आदमी का क्या हुआ होगा यह आप खुद अंदाजा लगा सकते हैं.”
समाप्त