कोसी पीड़ित विकास प्राधिकार
एक बार मैंने भी इसे (KADA- कोशी विकास प्राधिकरण कार्यालय) खोजा था, 2005 में जब मैं अपनी कोसी वाली किताब समाप्त करने का प्रयास कर रहा था। जब सहरसा शहर में कोई मुझे बता नहीं पाया कि प्राधिकार का दफ़्तर कहां है तब मैं वहां के DC से मिलने गया। वह कोई मिजोरम के रहने वाले सज्जन थे। उन्होंने दफ्तर में पुछवाया तब एक आदमी ने कहा कि वह जानता है। DC साहब ने उस आदमी को मेरे साथ लगा दिया कि वह मुझे प्राधिकार का दफ्तर दिखा दे। अब मुझे इतना ही याद है कि वह दफ्तर किसी बिल्डिंग के पहली मंजिल पर था।
वहां पहुंचने पर ऊंघते हुए दो आदमी मुझे मिले और उन्होंने बताया कि मैं सही जगह आ गया हूं। मैंने उन लोगों से पूछा यह दफ्तर तो तटबंध के अंदर रहने वालों लोगों के लिये बना है तो आप लोगों के पास इसकी स्थापना का कोई दस्तावेज जरूर होगा और आप लोग यहां क्या करते हैं उसके बारे में मुझे कुछ बताइए। उनमें से एक आदमी थोड़ा रसिक प्रवृत्ति का था जिस ने मुझे कहा कि हम लोग क्या करते हैं, वह तो आपने इस कमरे में घुसते ही देख लिया होगा। हम लोग यहां डेपुटेशन पर आए हैं। कुछ लोग और भी हैं वह भी सभी डेपुटेशन पर हैं। इस दफ्तर का कोई आदमी प्राधिकार के नाम पर नियुक्त नहीं है। हमारा कोई बजट भी नहीं है कि हम खुद कुछ कर सकें। हम लोग केवल दूसरे विभागों को दरखास्त कर सकते हैं कि फलाना काम करवा दीजिए। उन्होंने अगर करवा दिया तो वाह-वाह और नहीं किया तो भी वाह-वाह। यहां कोई काम नहीं होता है।
बाद में मैं भेलाही तक गया। यह गांव कोसी तटबंध के अंदर है और उस समय के प्राधिकार के अध्यक्ष का गांव था। अध्यक्ष जी तो गांव में नहीं थे वह कहीं गए होंगे या पटना में होंगे जिसके बारे में मुझे कुछ पता नहीं लगा। बाद में मैं उनसे मिला और उन्होंने जो कुछ मुझे बताया वह मैंने अपनी कोसी वाली किताब "दुइ पाटन के बीच में-कोसी नदी की कहानी" में लिखा है। प्राधिकार अगर आज गुमशुदा है तो यह 17 साल पहले भी गुमशुदा ही था। इसलिये यह कोई नई बात नहीं है।
बाद में मुझे पता लगा कि एक बार जब अध्यक्ष जी अपने गांव से बलुआहा घाट की यात्रा पर थे तो जिस नाव से वह आ रहे थे उसी में कुछ चोर भी सवार थे, जिन्होंने नाव से आने वाले लोगों की नगदी और सामान को लूटा और अध्यक्ष जी की घड़ी भी उतरवा ली। जब तक पुलिस वहां पहुंचती तब तक अपराध कर्मी वहां से फरार हो चुके थे।