आज समाचार मिला कि प्रो. श्रीवास्तव नहीं रहे। मेरी उनसे मुलाकात गोष्ठियों में हुआ करती थी पर कुछ कोरोना काल बाध्यताएं और कुछ उनकी ढलती उम्र ने आमने-सामने बैठ कर बातचीत पर बन्दिश लगा दी थी। बहुत ज़िन्दादिल इन्सान थे प्रो. श्रीवास्तव। मेरी उनसे आखिरी बातचीत कोई साल भर पहले हुई होगी। मैं उनके 1967 में पटना में आयी बाढ़ के बारे में जानकारी लेना चाहता था। अखबारों में उस बाढ़ की काफी चर्चा हुई थी। उन्होंने जो कुछ मुझे बताया उसे मैं उनके प्रति श्रद्धांजलि के तौर पर यहां दुहरा रहा हूं। उन्होंने कहा कि,
उनका कहना था कि, "उस समय तो पटना में बहुत से नये मुहल्ले बस रहे थे। पटना तो 1967 में बाढ़ से घिर ही गया था, इतना पानी आ जायेगा यह तो किसी ने सोचा भी नहीं था। पानी भर जाने के बाद सरकार की तरफ से नावें आयी थीं पर वह ज़्यादातर छोटी-छोटी ही थीं। ज्यादा लोग उसमें समा नहीं सकते थे। आज जो कंकड़बाग का इलाका है उस समय वहाँ सिर्फ खेत हुआ करते थे और उसमें भी एक ही बंगाली सज्जन का मकान था। वहाँ जब मकान बनने लगे थे तब एक मंजिल तक उसमें पानी आ गया था। इतना पानी तो ज्यादा बारिश या बाढ़ में अभी भी आ जाता है।
गंगा भी उफान पर थी और बाढ़ का पानी भी बहुत आया था। सवाल यह था कि कितना पानी आयेगा यह किसी को नहीं मालूम था और कहाँ से उसको रास्ता मिलेगा कि वह निकल पाये। आज जहाँ कंकड़बाग या राजेंद्रनगर है वहाँ तो बहुत ज्यादा गड्ढे वाली निचली जमीन थी जिनमें पानी भर जाता था। छोटे-मोटे तालाब इन जगहों पर थे। जिसके पानी को छलकने में देर नहीं लगती थी। हम लोग बचपन में जब पटना जाते थे तो स्टीमर से दीघाघाट में पार करते थे और वहाँ से इक्के पर चढ़ कर शहर में मीठापुर अपने घर आते थे। उस वक्त ऑटो या टैक्सी जैसी कोई सवारी नहीं थी।
उस समय पटना लम्बाई में बसा था और चौड़ाई में रिहाइश बहुत कम थी। धीरे-धीरे उसमें मकान बनना शुरू हुआ और जमीन खाल थी। हमें चौर और खाल का फर्क थोड़ा समझना चाहिये। जैसे मोकामा टाल है वह खाल है उसमें पानी पूरा भर जाता था। यही पटना में भी होता था। आप जरूरत से ज्यादा आशावादी बनेंगे तो उसका परिणाम तो आपको भोगना पड़ेगा। जिसको थोड़ा सा पैसा हुआ रहने के लिये पटना चला आता था और उसके लिये यही खाल वाली जमीन उपलब्ध थी। धीरे-धीरे खाल को भरना शुरू कर के लोगों ने बस्तियाँ आबाद कर लीं। इसका क्या परिणाम होगा और भविष्य में क्या-क्या मुसीबतें उठानी पड़ेंगी, यह सोचा ही नहीं। यह सब भूल कर के अपने घर के इर्द-गिर्द मिट्टी भर ली और घर बना लिया।
न घर बनाने वालों ने और न उसकी इजाजत देने वाली संस्थाओं ने ही इस पर कोई ध्यान दिया। उन इलाकों में कुछ भी नहीं किया जहाँ से आपके घर की तरफ पानी आता था। इसलिये स्वाभाविक रूप से जो पानी आता था वह तो आयेगा ही। वह पानी अगर आपके घर में नहीं भी घुसे तो भी घर को घेर तो लेगा। इस पानी को कहाँ भेजेंगे? ज्यादा से ज्यादा पम्प करके पानी इधर से उधर करेंगे। वह पानी जहाँ जायेगा, उसको भरेगा। गंगा में डालेंगे तो जब तक उसका लेवल कम नहीं होगा तब तक तो वह आप ऐसे ही रहने पर मजबूर करेगा।
यही हाल मुजफ्फरपुर का है लेकिन वहाँ इतनी बुरी हालत नहीं है। पटना का जो खाल था वह तो अब रहा ही नहीं। उस समय डोंगी पर घूमने का खूब मौका मिला था। मीठापुर, जहाँ हमारा घर है, ऊँचा स्थान है। वहाँ पुनपुन का पानी नहीं पहुँच पाता है। यहाँ भी पानी होने पर दो-तीन दिन के लिये घुटने भर रहता है और फिर निकल जाता है लेकिन अगर पुनपुन का पानी जिन इलाकों में पहुँचता है वहाँ से उसके निकलने में बहुत समय लग जाता है और वहाँ तो पानी अभी भी पहली मंजिल तक पहुँच जाता है।
यहाँ तो उपभोक्ता भी प्रशासन की बहुत मदद करता है। वह भी समस्या के समय भी समाधान की बात नहीं करता, रिलीफ की बात करता है। सरकारों को भी यही माफ़िक पड़ता है कि लोग रिलीफ मिलने से ही सन्तुष्ट हो जायें तो वह आराम से रिलीफ बाँट कर वाह-वाही बटोर कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेती हैं। समस्या की समग्रता पर न तब ध्यान दिया जाता था और आज दिया जाता है। हाल के वर्षों में पटना की जो हालत हुई है वह किसी से छिपी नहीं है।
इस पर सिर्फ चर्चा होती है काम नहीं होता है।
प्रो. शैलेन्द्र कुमार श्रीवास्तव