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कोसी नदी अपडेट - 1975 की बाढ़ : पूर्व मुख्य सचिव श्री वी. एस. दुबे से की गयी वार्ता के अंश, भाग 1

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  • Dr Dinesh kumar Mishra
  • November-07-2019
इस साल पटना की बाढ़ की चर्चा के साथ साथ 1975 की बाढ़ का ज़िक्र भी बार-बार आर रहा है. पिछले साल 1975 की पटना की बाढ़ के बारे में पटना के तत्कालीन जिलाधिकारी और बाद में बिहार राज्य के मुख्य सचिव रहे श्री वी. एस. दुबे से मेरी बातचीत हुई थी. उसी बातचीत के कुछ अंश.

श्री दुबे ने मुझे बताया कि सबसे बुरी हालत पाटलिपुत्र कॉलोनी में रही होगी क्योंकि यहाँ तो पूरा का पूरा ग्राउंड फ्लोर पानी में था. मंदीरी का नंबर इसके बाद ही आता होगा. अगर कोई किसी तरह बाहर चला गया तो वह नाव से ही लौट सकता था और वह सीधे अपने घर के पोर्टिको पर ही उतरता और वहीं से अपने घर के फर्स्ट फ्लोर पर पहुंचता. सच यह भी है कि सबसे ज्यादा तकलीफ मंदीरी वालों की थी क्योंकि उनमे ज़्यादातर लोग गरीब तबके के थे. छोटे घर वाले, कच्चे घर वाले लोग वहाँ थे जिनके बगल में नाला बहता था जो काफी संकरा था और ओवरफ्लो हो कर बह रहा था. उनकी गलियाँ संकरी थीं जिनमें नावें भी नहीं जा सकती थीं. वह लोग भी जो घरों की छतों पर फंसे थे वह बाहर नहीं निकल सकते थे. उनकी तकलीफें सबसे ज्यादा थीं पर पानी की गहराई सबसे ज्यादा पाटलिपुत्र कॉलोनी में थी. इसके अलावा गाँधी मैदान, फ्रेज़े रोड, इसके अलावा गांधी मैदान, इसके अलावा गांधी मैदान, फ्रेज़र रोड, मुसल्लहपुर, नाला रोड, कंकडबाग इत्यादि में भी चार फुट पानी बह रहा था.

बिहार सरकार ने एक राजनीतिक पार्टी की अध्यक्षता में एक समिति बनाई थी जो उस साल की पटना की बाढ़ का अध्ययन करके अपनी रिपोर्ट दे और उस कमिटी ने जिला प्रशासन को इस बात के लिए दोषी पाया था कि प्रशासन ने समय पर लोगों को बाढ़ की सूचना नहीं दी और न ही उन्हें सुरक्षित स्थानों पर जाने के लिए कहा जिसके कारण बाढ़ से लोगों की बहुत ज्यादा क्षति हुई. श्री दुबे ने कहा कि यह एकदम असत्य है क्योंकि प्रशासन की तरफ से बराबर चेतावनी जारी की जा रही थी और प्रचार किया जा रहा था. इस तरह की कोई कमिटी बनती है तो उसके लिए यह जरूरी था कि अपनी रिपोर्ट देने से पहले वह मेरे कलक्टर होने के नाते मुझसे जरूर बात करती और मेरी भी राय पूछती पर उन्होनें ऐसा न करके सीधे प्रशासन को दोषी करार कर दिया. श्री दुबे ने मुझसे यह भी कहा कि आप जिस त्रिपाठी कमिटी की बात कर रहे हैं, जिसने सरकार के आदेश पर उस साल की पटना की बाढ़ की जांच की थी, उन त्रिपाठी जी को मेरा पक्ष भी जानना चाहिए था क्योंकि इस पूरी घटना के केंद्र में प्रशासन था जिसकी धुरी मेरे इर्द-गिर्द घूमती थी. उन्होनें भी इसकी जरूरत नहीं समझी.

मैं 1977 तक पटना का कलक्टर था. गोपालाचारी यहाँ के एस.एस.पी. थे. मुझसे नहीं तो उनसे बात की जा सकती थी – वह भी नहीं हुआ. मैं जिस बिहार सरकार की कमिटी की बात कर रहा हूँ उसके अध्यक्ष से मेरी बहुत समय के बाद बात हुई तो मैंने उनसे प्रशासन यानी हम लोगों की बात न रखने के बारे में पूछा या राय तक न जानने के बारे में पूछा तो उनका कहना था कि इस तरह की रिपोर्टें सरकार को जाती हैं, उन पर जन माध्यमों से चर्चा भी होती है और विधान सभा में भी रखी जाती हैं. उन पर बहस भी होती है तो कमिटी का कोई भी सदस्य यह नहीं चाहता कि उस पर प्रशासन को बचाने का आरोप लगे. इसलिए उनका पूर्वग्रह इस बात के लिए उनको प्रेरित करता है कि वह सबसे पहले प्रशासन को दोषी बता दें.

उस समय डॉ. जगन्नाथ मिश्र मुख्यमंत्री थे और उनसे संपर्क करना जरूरी था पर उनका खुद का निवास बाढ़ के पानी से घिरा हुआ था. हालत यह थी कि उनकी एक भैंस उनके आवास के पोर्टिको पर बैठी थी और उनके सुरक्षा कर्मी उनकी छत पर बैठे थे. वह वहाँ से निकल ही नहीं सकते थे. संपर्क का एक ही साधन बचा था वायरलेस सेट जो मैनपैक था और उसे समय-समय पर चार्ज करना पड़ता था. बिजली प्रायः पूरे शहर से गायब थी और टेलेफोन सेवा ठप पड़ी हुई थी. जैसे-तैसे वायरलेस से उनसे संपर्क हुआ. हमें शंका थी कि इस समय जो खर्च प्रशासन यानी मेरे आदेश से किया जाएगा उसको लेकर भविष्य में शंकाएं उठेंगी अतः मेरा उनसे बात करना जरूरी था. मैंने उन्हें वायरलेस पर सारी परिस्थिति बताई जिस पर उनका कहना था कि आप को जो करना है करिए, ट्रेज़री का मुंह खोल दीजिये और जहां खर्च करना है करिए मगर लोगों को बचाइये बाकी सब हम संभाल लेंगें. मैंने उन्हें बताया कि अब बिजली के अभाव में वायरलेस सेट भी काम नहीं कर पायेगा और आप से बात तभी होगी जब बिजली उपलब्ध होगी. उन्होनें पूरा समर्थन देते हुए बात समाप्त कर दी.

उस समय उनके साथ कुछ पत्रकार बैठे हुए थे जो इस बात को साक्षित करेंगे उन्होनें मुझसे कहा कि आप सब कुछ संभालिए और मैं अब सब कुछ भगवान भरोसे छोड़ता हूँ जबकि वस्तुस्थिति ऎसी नहीं थी.. उनके इस कथन का पत्रकारों ने बाद में अपने तरीके से उपयोग यह कह कर किया कि मुख्यमंत्री ने जनता को भगवान भरोसे छोड़ दिया है. पत्रकारों ने हमारी बातचीत को इसी तरीके से प्रचारित किया था.

अंग्रेजों के ज़माने में ट्रेज़री से राशि की निकासी के लिए एक नियम, रूल-27, बनाया था जिसमें कलक्टर को यह अधिकार दिया गया था कि वह आपातस्थिति में आवश्यकतानुसार पैसा निकाल सके. मुख्यमंत्री का खुला आश्वासन और और ट्रेज़री का यह नियम मेरे बहुत काम आया कि पैसे की कोई कमी नहीं होगी और बात-बात में वित्त विभाग और मुख्यमंत्री से संपर्क नहीं करना पड़ेगा. सरकार तो खुद पानी से घिरी थी तो स्वीकृति कौन देता? मुझे याद आता है कि मुझे उस समय (1975) में मैंने तीन करोड़ रुपया इस नियम के अधीन खर्च किया होगा जो आजकल 200 करोड़ रुपयों से कम नहीं होगा.

गंगा किनारे कचहरी के निकट एक पुलिस लाइन थी. मैं और हमा्रे एस.एस.पी. गोपालाचारी कमर भर पानी में 25 अगस्त की रात को ही वहाँ जाने के लिए निकले कि शायद वहाँ वायरलेस काम करता हो. तैरना न तो मैं जानता था और ना वो मगर दोनों चले. पुलिस बैरक में पानी कम था मगर इतना जरूर था कि बैठने के लिए चौकी पर चौकी रखनी पड़े. कुछ लोग छत पर बैठे थे. सिपाहियों के पास खाने-पीने को कुछ भी नहीं बचा था और सब के सब 250 के आसपास सिपाही भूखे–प्यासे मुंह लटकाए बैठे थे. हम दोनों को देख कर उनमें ऊर्जा संचार हो गया और वह सब चैतन्य हो गए. अब पहली जरूरत यह थी कि इन सिपाहियों के लिए कुछ खान-पान की व्यवस्था की जाये. बहुत तलाशने पर भी चना तक नहीं मिला मगर कहीं से केले हाथ लग गए तो कुछ काम चला.

वायरलेस को चार्ज करने के लिए मैनपैक की जरूरत पड़ती थी जिसको हर दस घंटे के बाद चार्ज करना पड़ता था. उसको चार्ज करने का जिम्मा एक जवान ने लिया पर समस्या यह थी कि अकेले हमारे वायरलेस को चार्ज करने से क्या होगा? लेकिन जिसको संवाद भेजना है उसका भी वायरलेस भी चार्ज होना चाहिए. इन जवानों ने बड़ी मेहनत कर के वायरलेस को अलग-अलग जगहों पर पहुंचाया और तब जाकर कहीं मेरा कमिश्नर, एस.पी. और एस.डी.ओ से संपर्क स्थापित हुआ. छज्जू बाग में मेरे कई अफसर थे जिनके घर की छत पर जाने का रास्ता नहीं था. वह ऊपर जा ही नहीं सकते थे. वह अपनी छत के स्लोपिंग हिस्से पर बच्चों को रस्सी से बाँध कर बैठे थे ताकि बच्चे पानी में न गिर जाएँ. बच्चों का वैसे भी कोई भरोसा नहीं था कि वह कब क्या कर बैठें. यह 26 अगस्त की बात है. अब राहत सामग्री की व्यवस्था करनी थी और सेना से संपर्क करना था. पटना के बाहर का प्रशासन भी यहाँ की हालत से चिंतित था.

क्रमशः - 2


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