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कोसी नदी अपडेट - बिहार में बाढ़, सुखाड़ और अकाल, भाग - 1 (1966-67)

  • By
  • Dr Dinesh kumar Mishra
  • January-11-2020
मूलतः घनश्यामपुर प्रखंड जिला दरभंगा के निवासी और अब हजारीबाग में रहने वाले अस्सी वर्षीय प्रोफ़ेसर महेश लाल दास विनोबा भावे विश्वविद्यालय के उप-कुलपति रह चुके हैं. मालतीधारी कॉलेज, नौबतपुर - पटना में 1960 से अंग्रेजी विभाग में अध्यापन शुरू करने के बाद जुलाई 1961 से सेंट कोलम्बा कॉलेज, हजारीबाग चले आये. उनके अनुसार 1966 के बिहार के अकाल में कॉलेज और आम लोगों की तरफ से भी गाँवों में काफी काम किया गया था. वो बताते है,

1966-67 के अकाल का कारण क्या था यह तो कह पाना अब मेरे लिए मुश्किल है मगर उसका प्रभाव बड़ा भयानक था. लोगों के पास खाने के लिए कुछ नहीं बचा था यहाँ तक कि महुआ भी ख़त्म हो चुका था. एक पीला अखाद्य फूल होता था जिसका भरता बना कर लोग खाते थे और इसके चलते लोगों को बीमारियाँ भी बहुत हुईं. हमारे यहाँ कॉलेज में सामाजिक कार्यों के लिए विद्यार्थियों का एक गिल्ड हुआ करता था. जब अकाल जाहिर हो गया तब हम लोगों ने सड़क पर घूम-घूम कर चंदा मांगना शुरू किया और चंदे में काफी खाद्य सामग्री और कपडे इकट्ठा हो जाया करते थे. यह सामान ले कर हम गाँवों में निकल जाते थे और उसे प्रभावित लोगों में बाँट देते थे और साथ में किस जगह किस चीज़ की जरूरत है इसका सर्वे भी हो जाता था.

उन दिनों शहर में एक डिस्ट्रिक्ट रिलीफ कमेटी का गठन हुआ था जो बिहार रिलीफ सोसाइटी के साथ मिल कर काम करती थी जिसके अध्यक्ष जय प्रकाश नारायण हुआ करते थे. उन दिनों यहाँ के डिप्टी कमिश्नर चन्दा साहब थे. वो बड़े भले आदमी थे और इन कामों में रुचि लेते थे. बिहार रिलीफ सोसाइटी हजारीबाग सदर सब-डिविज़न के साथ-साथ चतरा इलाके में भी काम करती थी जो उस समय जिला नहीं बना था. चतरा के गाँवों में उस साल अकाल ने बहुत बड़ा कहर ढाया था. अकाल पीड़ितों में मुफ्त राहत उन्हीं लोगों को मिलती थी जिन्हें प्रशासन से लाल कार्ड मिलता था. सामान तो हम लोग इकट्ठा कर लेते थे पर उसे गाँवों तक कैसे ले जाएँ यह समस्या थी. इसके लिए कभी किसी से गाडी मांग ली तो कभी किसी से जीप ले ली कभी कॉलेज कि बस मिल जाती थी. कुछ नहीं तो साइकिल पर कुदाल रख ली खांची रख ली और कटकमसांडी ब्लाक की और निकल जाते थे.

एक तो सरकार की योजना गड़बड़ थी. यहाँ जो सुल्ताना रेलवे स्टेशन हैं ना उसी के पास एक चीची गाँव है. उस गाँव में एक ही कुआं था जो सूख चुका था और ग्रामीणों को 3-4 किलोमीटर पैदल जाकर पीने के लिए पानी लाना पड़ता था. हम लोगों की आँखों के सामने दो भैंसें पानी के अभाव में मर गयीं. उनको पीने के लिए पानी नहीं मिल पाया था. उसी गाँव में सरकार की तरफ से एक हार्ड मैन्युअल स्कीम का काम एक ठेकेदार की मार्फ़त खुला था और वह ठेकेदार हमारे ही कॉलेज का एक विद्यार्थी था. हम लोगों ने उनको सुझाया कि कोई ऐसा काम क्यों नहीं करते जिससे पानी की समस्या हल हो जाये. गाँव वालों से भी बात हुई और तय पाया गया कि हम लोग भी अगले दिन कुदाल और खांची लेकर आयेंगें और किसी निश्चित स्थान पर गहरी खुदाई का काम करेंगें और पानी की स्थानीय व्यवस्था करने का प्रयास केरेगें. अगले हम लोग पूरी तय्यारी के साथ गए और गाँव वालों से बात करके एक जगह मिटटी खोदना शुरू किया. वहाँ पहले नमी दिखाई पड़ी और फिर पानी भी मिला.

पानी निकला तो यह बात बी.डी.ओ. से होते हुए सरकार तक पहुंची और तब सरकार ने इस तरह के काम को अपने कार्यक्रम में भी शामिल किया. ठेकेदार चाहता था हमारे छात्रों का किया हुआ काम भी उसके काम में शामिल कर दिया जाये तो उसका कुछ नाम हो जाता और शायद वह इसका कुछ पैसा भी उठा लेता पर इसके लिए हम लोग राज़ी नहीं थे. सरकार जो कुछ भी कर रही थी वह इन ठेकेदारों के माध्यम से ही कर रही थी और वहां भारी अनियमितताएं थीं, जिसमें ठेकेदार मालामाल हो रहे थे और जनता की जरूरतें प्राथमिकता में नहीं थीं.

क्रमशः -2
प्रो. महेश लाल दास

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