1957 में पूरे बिहार में जबर्दस्त सूखा पड़ा था और प्राय: हर जिले में राहत कार्य चलाने पड़े थे। सीतामढ़ी सब-डिवीजन तक में सुखाड़ था जिसके बारे में मुझे 86 वर्षीय श्री बिपिन बिहारी सिंह, ग्राम कोड़लहिया, प्रखंड रुन्नी सैदपुर, जिला मुजफ्फरपुर (वर्तमान सीतामढ़ी) ने जो बताया वह उन्हीं के शब्दों में यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ।
1957 में एकबैक अकाल जैसी स्थिति पैदा हो गई थी और उससे निपटने की कोई युक्ति काम नहीं कर रही थी. जवाहरलाल जी उस समय प्रधान मंत्री थे और अकाल पड़ने पर कोई दीर्घावधि की कोई योजना बनाने के लिए समय नहीं था. ऐसे समय में तो जो स्थिति सामने थी उसी का पहले मुकाबला करना पड़ता है. अकाल के सवाल को लेकर जब जय प्रकाश जी नेहरु जी से मिलने गए तो उन्होंने साफ़ तौर पर कहा कि इस समय आप लोग जो कुछ भी कर सकते हैं. वह करिए मगर हम रिलीफ के अलावा कुछ और नहीं कर सकते. जय प्रकाश जी वापस चले आये कि अगर रिलीफ ही करना है तो वह तो हम भी कर सकते हैं. उनका व्यक्तित्व भी कम प्रभावशाली नहीं था. उनके देश-विदेश में भी हर स्तर पर संपर्क बहुत अच्छे थे. बहुत पैसा और सामान की व्यवस्था और गाँव गाँव में राहत कार्यों को शुरू करवा दिया ताकि बेकार हो गए मजदूरों को काम मिल सके.
हम लोगों के गाँव के पूरब में बागमती की खनुआ धार बहती थी और पश्चिम में मकसूदपुर धार थी जो उन दिनों बागमती की मुख्य धारा थी. खनुआ धार में पानी बहुत कम आता था. सूखे की वजह से जो भी पानी था वह सूखने के कगार पर पहुँच गया था. मेरे बड़े भाई बद्री बाबू बड़े जिद्दी किस्म के आदमी थे. जो ठान लेते थे वह कर के मानते थे. उन्होंने मकसूदपुर धार से पानी लाकर खनुआ धार में छोड़ने की योजना बनाई और कोड़लहिया, ढाप, छपरा तथा आसपास के गाँवों के लोगों को संगठित किया कि दो घंटा रोज़ लोग श्रमदान कर के एक नाला खोदेंगे जो दोनों धारों को जोड़ देगा. वह यहाँ गौस नगर तक इस नाले के माध्यम से पानी तो ले आये और उनका प्रयास यहीं तक सफल हो पाया. इसके पहले तो बात चलती थी कि बूढ़ी गंडक को बागमती से जोड़ दिया जाय. यह काम तो आजतक नहीं हुआ. उस समय जो कमेटी बनी थी उसमें हमारे गाँव के एक सुपरिन्टेन्डिंग इंजिनियर तेज नारायण सिंह भी थे, वह काम तो अभी शायद तक हुआ ही नहीं है.
यह कहना ठीक नहीं है कि सरकार को इस तरह के काम का कोई अनुभव नहीं था. ऐसा काम करने के तरीके में मतभेद हो सकता है क्योंकि सरकार सारा काम इंजीनियरों और ठेकेदारों के माध्यम से करती है. उसे काम पूरा करना होता है और हम लोगों के यहाँ मामला जीने-मरने का था और यहाँ मामला पारस्परिक सहयोग का था. पहले भी तो हम लोग नदी की धारा के सामने मिट्टी डाल कर पानी खेतों तक ले ही जाते थे और यह काम नदी के ऊपरी हिस्सों से यहाँ और यहाँ से नीचे तक आपसी तालमेल से चलता ही था. मुझे याद है कि उस समय राम चरित्तर बाबू सिंचाई मंत्री थे और इस काम के सिलसिले में यहाँ आये थे. उन्होनें अपने भाषण में हाथ उठा-उठा कर कहा था कि पानी आएगा, पानी आएगा, मगर पानी नहीं आया. सिर्फ काम करने के तरीके और जरूरतों का फर्क था. हम लोगों ने जो कोशिश शुरू की थी उसमे सरकार ने सहयोग किया था पर सफलता नहीं मिली.
श्री बिपिन बिहारी सिंह