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कोसी नदी अपडेट - बिहार में बाढ़, सुखाड़ और अकाल, (1950-52)

  • By
  • Dr Dinesh kumar Mishra
  • January-30-2020
उस अकाल ने सबको नंगा कर दिया था.

85 वर्षीय राधेश्याम तिवारी, ग्राम पिपरी, पोस्ट मोकर, जिला रोहतास से मेरी बातचीत के कुछ अंश...

हमारा गाँव सासाराम से करीब तीन किलोमीटर उत्तर में है और यह सेमरा स्कूल के पूरब में है. 1950 के बाद में हमारे यहाँ जबरदस्त मुआर हो गया था, जिसमें तेतरी, पिपरी, करमडिहरी और लालेपुरा आदि गाँवों में पूरी तरह से अकाल जैसी हालत पैदा हो आई थी. हमारे गाँव के पूरब में चार किलोमीटर तक हमारे गाँव का सिवान है. डिहरी से लेकर सासाराम होते हुए गुड़पा आदि को समेटते हुए अंकोढ़ीगोला, कुदरा, और भभुआ सब में यही हालत थी. सासाराम से उत्तर में पांच किलोमीटर दूर से सोन परियोजना की नहर जाती है. उस नहर के दक्षिण में जो सासाराम का हिस्सा पड़ता है उसमें, चेनारी, तिलौथू की तरफ भी मुआर हो गया था. लोग अपने रहट से, मोट से, कुएं से जैसे भी हो सिंचाई इंतजाम करते थे लेकिन थोडा बहुत भी धान हो पायेगा इसका किसी को भी भरोसा नहीं था. हम लोग स्कूल जाते थे तो बरसात के मौसम में खेतों में धूल उडती थी. शुरू-शुरू में तो लगा कि धान नहीं भी होगा तो गेहूँ जरूर हो जाएगा मगर पानी तो गेहूँ को भी चाहिए था. सारी खेती राम भरोसे हो गयी थी. हमारे गाँव के बगल में गमहरिया गाँव है. वहाँ किसान कुएं से रहट से पानी निकालते थे. एक साल, दो साल, तीन साल तक जब पानी ही नहीं बरसेगा तब कुएं से कितनी सिंचाई हो पाएगी? कुएं में पानी ख़त्म हो जाए या बहुत कम आने लगे तो लोग कुएं में उतर कर उसे और ज्यादा खोद लिया करते थे. तो पानी की मात्रा थोड़ी बढ़ जाती थी. पानी बर्बाद न हो इसलिए मोट की मदद भी लेनी पड़ी थी. सिंचाई का यह एकदम अलग तरीका है.

सरकार क्या कर सकती थी? पानी बरसा सकती थी क्या? रिलीफ दे सकती थी, वह भी किसी को मिला तो किसी को नहीं. इतना बड़ा इलाका अकाल में फंसा था, किस सरकार में दम था कि सबको रिलीफ और अनाज दे देती? लोग कहते हैं कि अमेरिका से बहुत सारा अनाज आया था. अरे! हमको मिलता तो कहने में क्या परेशानी थी कि हाँ! हमें अनाज मिला? यह सब तो इधर मिलने लगा है, तब कहाँ था?

कण्ट्रोल का ज़माना था. सासाराम में कैरोसिन तेल (मिट्टी का तेल) मिलता था. लम्बी-लम्बी लाइन लगती थी. हम लोगों के यहाँ तीसी होती थी उसी से खाना भी बनता था और वही तेल ढिबरी में भी जलाया जाता था. सामान्य मौसम में धान, गेहूँ, चना, मटर, खेसारी, अरहर , तीसी आदि हो जाया करती थी. जो लोग कहते हैं कि घरों में सात-सात साल के लिए अनाज इकट्ठा कर के लोग रखते थे उनमें से कितने लोगों की हैसियत थी कि इतने दिनों के लिए अनाज घर में रख सकें? फिर अनाज बिकेगा नहीं तो बाक़ी चीज़ों के लिए पैसा कहाँ से आएगा? वह समय बहुत बुरा था और उसकी याद आप मुझे मत दिलाइये. बहुत कठिन दौर से हम लोग गुज़रे थे जिसे याद करके आँखों में आंसू आ जाते हैं. हमारे यहाँ तो तो भी कुछ गनीमत थी. हमसे दक्षिण में तो हालत और भी ज्यादा खराब थी. अच्छा इतना ही था कि उधर के लोग बहुत मेहनती थे तो कुछ न कुछ व्यवस्था कर लेते थे.

मेरे घर में सामान्य वर्षा वाले साल में चालीस मन चावल हो जाता था. अकाल के पहले बाज़ार में चावल 12 रुपये मन और धान 5 रुपये मन मिल जाता था. अकाल के समय तो दाम आसमान छूने लगा था. और इन दामों पर भी अगर अनाज खरीदना पड़े तो कितने लोगों के पास पैसा था कि चावल खरीद पाते? वो तो जगजीवन राम ने प्रयास करके नहरें बनवा दीं तो अब कुछ आराम हो गया है. थोडा बहुत काम इमरजेंसी के बाद सच्चिदानंद के समय में हुआ. उसके बाद तो जितने भी सिंचाई मंत्री हुए उन्होनें अपने इलाके में काम करवाया, उसके बाहर नहीं.

हम दो भाई खेती करते थे. हमारे गाँव से दो किलोमीटर दूर एक बड़ा ताल है उसी से पानी आता था और लाठा-कुंडी से पानी हम लोग निकाल लेते थे और खेत में दे देते थे. दिक्कत यह थी कि जब पानी बरसेगा तभी तो वह ताल भरेगा. वर्षा न होने से पानी की घोर कमी हो गयी थी. हम लोगों ने जैसे-तैसे अपनी खेती बचा ली थी मगर उपज काफी कम हो गयी थी.

कपड़े की हालत तो मत पूछिए. कपड़े का कोटा आता था और मुखिया के लिख देने के बाद ही कपड़ा मिलता था और वह भी जरूरत से बहुत कम. औरतें हमारे इलाके में ज्यादातर मलमल की साड़ी पहनती थीं और आदमी मारकीन की धोती पहनते थे. जाने के पहले अंग्रेजों ने बहुत सी कपड़ा बुनने की मशीनें जला दी थीं इसलिए कपड़े का उत्पादन कम हो गया था. कुछ द्वितीय विश्वयुद्ध का भी असर पडा ही होगा. 


सासाराम में अच्छे-अच्छे घरों की हालत यह हो गयी थी कि एक ही धोती में काम चलाना पड़ता था. नहा कर लोग आधी धोती लपेटे रहते थे और आधी धोती को दौड़-दौड़ कर सुखाते थे. जब आधी धोती सूख जाती थी तो सूखा वाला भाग लपेटते थे और गीले वाले को सुखाते थे. तब उनकी धोती, धोती मालूम पड़ती थी. औरतों का क्या होता होगा उसका तो आप अंदाजा लगा ही सकते है. यह हालत गरीबों की तो थी ही, बड़े-बड़े परिवार भी इससे बचे नहीं थे. कपड़े की कमी ने सबको नंगा कर दिया था.


(श्री राधे श्याम तिवारी)

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