"नदी का पानी कब किस घर को अपने साथ लेता चला जाएगा यह कोई नहीं जानता था।"
1934 के भूकंप के पहले जन्मे श्री राम चरित्र, ग्राम सीताकुंड,प्रखंड मुंगेर सदर, जिला मुंगेर से हुई मेरी बातचीत के कुछ अंश उन्हीं के शब्दों में।
हम लोगों का गाँव सीताकुंड गंगा के किनारे है और यह नदी हमारे गाँव से एक किलोमीटर उत्तर में बहती है. गंगा का पानी अक्सर हम लोगों के घरों में प्रवेश कर जाता था. जहां तक मुझे याद है हमारे यहाँ 1948 में हमारे यहाँ बहुत बड़ी बाढ़ आयी थी और यह बाढ़ स्वतंत्र भारत की पहली बाढ़ थी। उस साल जब मैं यहाँ पास के पहाड़, जिसे पीर पहाड़ कहते हैं, गया था तो वहां से पूरा इलाके में पानी ही पानी दिखाई पड़ता था. यहाँ छोटी-छोटी नदियाँ नहीं है, जो भी विस्तार है वह गंगा का ही है. यहाँ आमतौर पर पानी पंद्रह दिन तक रहता है मगर उस साल तो महीने भर से ज्यादा समय तक रह गया था.
हम लोगों का खेत दियारे में पड़ता है और जब बाढ़ आती है तब कोई ख़ास कटाव नहीं होता है. पानी जब उतरता है तभी कटाव जोर पकड़ता है. हमारे गाँव के दक्षिण से उत्तर की तरफ कोई 6 मील की बेल्ट है दियारे की. अंग्रेजों के समय में सारी आवाजाही और व्यापार नावों के माध्यम से ही होता था. स्टीमर बहुत बाद में आये थे. इधर तारापुर दियारा, तौफीर दियारा, टीकापुर, भैलवा (मानसी तक) काफी मशहूर हैं. हमारी तरफ सीताकुंड में नाव में बैठते थे, जो मुंगेर से तीन किलोमीटर दूर पड़ता है, तो 2 से 3 घंटे बाद गंगा के दूसरे किनारे पर गोगरी घाट में उतर जाते थे. उस तरफ गोगरी की मस्जिद, नगरपाड़ा का इनारा, भरतखंड का बावन कोठरी तिरपन द्वार आदि बहुत मशहूर स्थल हैं। उस साल गंगा के उस पार बहुत कटाव हुए था।
इस दियारे में फसल का कटाव बहुत साधारण घटना होती है. गंगा में ऊपर मिट्टी है मगर नीचे तो एकदम बालू ही बालू है. 1948 में हम लोग इसी जगह रहने के लिए आ गए थे. यहाँ की ज़मीनें दो तरह की हैं. एक तरह की ज़मीन करारी कहलाती है, जो बाढ़ प्रभावित होती है और दूसरी ज़मीन बरारी कहलाती है, जो डूब्बा ज़मीन होती है. 1948 में जिन दियारों के नाम मैंने आपको बताये वहां के लोग अपना माल-जाल लेकर इधर शरण लेने के लिए चले आये थे. यह भी कोई नयी बात नहीं थी. ज्यादा बाढ़ आने पर ऐसा होता ही था और उस साल भी हुआ मगर बड़े पैमाने पर हुआ।
उस साल हमारे यहाँ कटाव के कारण आकर शरण लेने वालों को इतनी बड़ी घटना के बाद भी सरकार की तरफ से कोई मदद नहीं मिली थी. यातायात की सुविधा न होने के कारण मदद मिल भी नहीं सकती थी.समाज के स्तर पर सहयोग जरूर ज़बरदस्त था और लोगों ने एक दूसरे की मदद की थी. विस्थापितों के रहने-सहने और खाने पीने का प्रबंध हम लोगों की तरफ से किया गया था क्योंकि उस साल कटाव हमारे नहीं हुआ था. उन दिनों सरकार का मतलब था जिला मुख्यालय, ऐसी स्थिति में सरकार दूर- दराज के इलाकों में कैसे पहुँच पाती? 1948 में पहली बार पंचायत के चुनाव यहाँ हुए थे. जमा कुछ दिनों की पंचायत भी क्या कर लेती?
भारत में किसी भी स्थान पर, जंगलों को छोड़ कर, कोई भी मूल बाशिंदा आपको कहीं भी नहीं मिलेगा. दियारा क्षेत्र में तो यह और भी नामुमकिन है. किसी से भी पूछिए तो वह अपना मूल स्थान कहीं और बतायेगा. हम लोग भी पश्चिम से आये हैं. उत्तर में हिमालय और इधर सहरसा, पूर्णियाँ, दरभंगा, मुंगेर और भागलपुर का दक्षिण वाला इलाका जो बाढ़ और कटाव वाला क्षेत्र है वह पहले तो निर्जन ही रहा होगा. पूर्णियाँ का तो नाम सुन कर ही होश उड़ जाता था. वहाँ किसी की पोस्टिंग हो जाए तो वह सज़ा ही समझी जाती थी. भागलपुर और मुंगेर के कुछ हिस्सों को काट कर 1954 में सहरसा बिहार का सोलहवां जिला बना था.
बाढ़ पहले प्राकृतिक हुआ करती थी अब कृत्रिम है जैसा फरक्का बराज बनाने के बाद हुआ है. पानी का प्रवाह रुक गया है और वह बहुत धीरे-धीरे निकलता है. इससे नदी की पेटी ऊपर उठ रही है और खेतों पर अब ताज़ी मिट्टी नहीं बालू जमा होता है. फिर भी यहाँ मकई, ककड़ी, तरबूज, खरबूजा, परवल, अल्हुआ और दूसरी साग-सब्जी हो जाती है. कटाव के कारण लोगों को विस्थापित होना पड़ता है और जरूरत के हिसाब से पीछे हटना पड़ता है. दियारा क्षेत्र में दिन में भोजन नहीं बनता था. मकान पक्के थे ही नहीं और मिटटी के घर भी नहीं थे. जो भी घर थे वह फूस के बनते थे और दियारे में इसके अलावा कोई चारा भी नहीं था. नदी का पानी कब किस घर को अपने साथ लेता चला जाएगा यह कोई नहीं जानता था।
दिन में सत्तू, चूड़ा-दही या ऐसा ही कोई रेडीमेड भोजन सबके यहाँ होता था और रात में बड़ी सावधानी के साथ सामान्य भोजन बनता था. सावधानी इस लिए कि आग लगने का बहुत डर रहता था. एक बार आग लगी तो पूरे दियारे के घरों का सफाया होने का डर था. सबसे बड़ा नुकसान अनाज के जल जाने का होता था.
अब सत्ता का विकेंद्रीकरण से जिले के साथ-साथ अनुमंडल और प्रखंड आदि बने हैं तो सरकार कम से कम प्रखंड स्तर पर तो पहुँच ही गयी है. इसलिए कोई भी सरकारी मदद पंचायत तक आ गयी है. पहले यह सब संभव नहीं था. अंग्रेजों के समय यह सब सोचा भी नहीं जा सकता था. अब आपदा प्रबंधन विभाग, फायर ब्रिगेड प्रखंड स्तर पर उपलब्ध है. उस समय कुएं के अलावा पानी का कोई कृत्रिम साधन नहीं था.
श्री राम चरित्र