1987 में जैसी बाढ़ आयी थी, वैसी बाढ़ वहां पर अभी तक नहीं आयी।
पद्मश्री (डॉ.)श्रीमती उषा किरण खान से हुई मेरी बातचीत के कुछ अंश उन्हीं के शब्दों में।
हम लोग बाढ़ भोगते हैं। 1987 में जैसी बाढ़ आयी थी वैसी बाढ़ वहां पर अभी तक नहीं आयी।
1968 में पानी कोसी तटबंधों के बीच भले ही रिकॉर्ड स्तर का था पर वहां जो कुछ 1987 में घटा वह बेमिसाल था। उस साल नदी में इतना बालू आया था कि हमारा गाँव, हमारा घर और कोसी का पश्चिमी तटबंध – सब का लेवल एक समान हो गया था। अब तो वह बालू सड़ कर मिटटी बन गया और वहां अच्छी खेती भी होने लगी है। 1987 में ऊपर से उड़ कर खाना पहुंचाने वाला हेलीकाप्टर आ चुका था और खाद्य सामग्री पहले के मुकाबले पहुंचाना आसान हो गया था। यह बात अलग है कि हेलीकाप्टर से गिरी हुई खाद्य सामग्री कहाँ कहाँ गिरती है और उसका क्या हश्र होता है यह किसी से छिपा नहीं है।
उस बाढ़ में मेरी माँ घर के हर सदस्य को गाँव के घर से विदा करके खुद एक कुम्हाइन के साथ छप्पर पर रह गयी थीं। दोनों ही बूढ़ी थीं। सारा गाँव उस वक़्त खाली हो गया था और यह दोनों ही रह गयीं थीं वहां। मेरा भाई और कुम्हाइन का बेटा पश्चिमी तटबंध से चिल्ला-चिल्ला कर पूछते थे कि मां! तुम लोग कैसी हो? तब जवाब आता कि सब ठीक है।
मेरी मां के पैर पर सारी चीटियाँ आकर बैठ गयी थीं। काटती नहीं थीं, सिर्फ बैठी थीं। सुबह होते ही चीटियाँ भाग गयीं मगर मां का पैर ऐसा हो गया जैसे कोई दबा कर बैठा हो। सुबह आकर मेरा भाई और कुम्हाइन का बेटा गाँव जाकर इन दोनों को ले आये। मां के अनुसार रात में छप्पर पर इन दोनों मनुष्यों के अलावा वहां मेढक, चूहे, छिपकिली, सांप-सब एक साथ रहे और किसी ने भी दूसरे को नुकसान नहीं पहुंचाया। सुबह जैसे ही कुछ रोशनी हुई तो यह सब एक-एक कर के पानी में कूद कर भाग गये जैसे वह सब सुबह का इंतज़ार कर रहे थे। पानी का लेवल अभी भी कम तो नहीं हुआ था लेकिन वो सब के सब वहाँ से चले गये। यह बड़े आश्चर्य की बात है।
प्राणियों में सबसे हिंसक मनुष्य ही होता है। उसे मौक़ा मिलता तो वह सबको मार भगाता मगर उन सबने किसी दूसरे को नुकसान नहीं पहुंचाया। ऐसा बहुत सा अनुभव हम लोगों के पास पानी का है।
समाप्त
पद्मश्री श्रीमती (डॉ.) उषाकिरण खान