बिहार-बाढ़-सूखा-अकाल
ग्राम अदौरी, प्रखंड पुरनहिया, जिला सीतामढ़ी के 80 वर्षीय श्री नागेंद्र सिंह से हुई मेरी बातचीत के कुछ अंश।
"उनका कहना था कि, "1963 में तो बागमती की बाढ़ हमारे गाँव तक आ गयी थी। इसके पहले 1954 और 1958 में भी भी यहाँ तक आ गयी थी। हमारा गाँव नदी के किनारे है तो बाढ़ से मुलाकात होती रहती है। आजकल हमारा घर तो पुनर्वास में है। यहाँ से ढेंग जाने के रास्ते में घर पड़ता है जो शंकर जी के मंदिर के बगल में चला आया है। जब बाँध नहीं बना था तो नदी तो बरसात के मौसम में घूमती रहती थी हमारे यहाँ। पहले नदी का पानी फैल कर आता था तो इतनी तबाही नहीं करता था। गाँव का कुछ हिस्सा कट भी जाता तो उन दिनों फूस या मिट्टी के घर बनते थे तो उसकी मरम्मत या फिर से नया बनाने में कोई खास दिक्कत नहीं होती थी। खेतों में ताज़ा मिट्टी पड़ जाती थी और फसल ठीक-ठाक हो जाती थी। बागमती की पाँक (सिल्ट) वैसे भी बड़ी उपजाऊ होती है। हमारा गाँव अदौरी पुरनहिया थाना में है और घर बैरगनिया थाने में पड़ता है। 1963 में कटाव कुछ ज्यादा हो गया था और यह कटाव आसपास के गाँवों में भी हुआ था। कुछ दिनों के लिये परेशानी हुई थी।
बागमती के दोनों किनारों पर 1970 के दशक में तटबन्ध बने। जब बाँध बना तो उसका समर्थन भी हुआ और विरोध भी हुआ। कुछ लोगों का सुझाव था कि बाँध नहीं बने। गाँव के चारों ओर रिंग बाँध बने पर रिंग बाँध बनाने की बात कुछ कारणवश आयी-गयी हो गयी। बाद में अदौरी मौजे से लेकर छपरा जुड़ांव तक बाँध बना। बाँध बना तो पुनर्वास की बात भी उठी। जिसके पास कुछ सम्पत्ति थी और अपनी जमीन भी बाँध के पूरब में रही हो, वह तो उस जमीन पर जाकर बस गया। अपनी जमीन जिसके पास नहीं थी मगर जमीन खरीदने की सामर्थ्य थी तो भी वह जमीन खरीद कर वहाँ जाकर बसा। मेरे पास नाम लेने भर को चार-पाँच बीघा जमीन जरूर है। अब उसमें से दो बीघा जमीन बची है। कुछ इस बाँध के पश्चिम में तटबन्धों के बीच में है। उस जमीन पर बालू पसरा हुआ है।
जब बाँध बना तब पुनर्वास का मसला उठा। जिसकी जैसी रिहायशी जमीन बाँधों के बीच में पड़ी उसी के हिसाब से उसको बाँध के बाहर सरकार की तरफ से जमीन मिली। बाँध बनने के बाद भी बागमती का यहाँ आना थमा नहीं। वह तो बाँध तक चली ही आती है। तब बाँध के स्लोप पर पत्थर लगाने का और एक से दस जरीब हट कर पत्थर लगाने का काम हुआ। अब अगर नदी पश्चिम में बाँध से दूर चली जाये तब तो उससे जान बचे। सारी कोशिश नदी को बाँध से दूर रखने के लिये होती है। फिर भी वह तो बाँध तक आती है और हर साल आती है। हमारे गाँव के सामने यह बाँध अभी तक टूटा नहीं है पर अगल-बगल में तो टूटता ही है। दस-पंद्रह वर्ष हुए यहाँ से नीचे सोनाखान में टूट चुका है।
नदी के उपद्रव से तटबन्ध क्योंकि हमारे गाँव के सामने कभी नहीं टूटा है इसलिये हम इसे ठीक ही कहेंगे मगर खेत-पथार तो सब मर गया। धान नहीं होता है। बाँधों के बीच की दूरी करीब 3 किलोमीटर है और नदी की धारा सूखे मौसम में एक से दो किलोमीटर के आसपास बाँध से दूर रहती है। नदी के बीच की जमीन परती पड़ी रहती है। जो हमारी मर्जी के बिना परती रह जाती है वह जमीन हमारे किसी काम की नहीं बची। पहले वहाँ धान और गेहूँ होता था अब उस जमीन पर कभी कुछ गेहूँ हो गया तो बड़ी बात है। धान को तो बह ही जाना है इसलिये अब कोई लगाता नहीं है। उस जमीन पर ककड़ी, खरबूज, तरबूज जैसी बालू वाली फसल उगा लेते हैं या किसी ककड़ी-खरबूज उगाने का अनुभव रखने वाले को ठेके पर दे देते हैं। उससे थोड़ा-बहुत पैसा मिल जाता है तो ठीक वरना संन्तोष करना पड़ता है।
बाँध बनने से इतना हमारे गाँव में जरूर हुआ है कि घर सुरक्षित हो गया है लेकिन आठ आना सम्पत्ति तो बरबाद हो गयी। हमारी तो सारी जमीन बाँध के अन्दर चली गयी है। अब गयी तो गयी, ककड़ी-तरबूज पर सन्तोष करने के सिवा हम कर भी क्या सकते हैं? यहाँ तो सारा सरकार का अमला तंत्र जो है वह सिर्फ नोचने वाला है। कोई मदद नहीं करता है। आम जनता को क्या मिलता है? रिलीफ़ में बस चावल-गेहूँ मिल जाता है। हमारे लिये वही बहुत है।"
श्री नागेन्द्र सिंह