बिहार की 1954 की बाढ़ हमेशा से चर्चा में रही है। इसके दुष्प्रभाव पर विधानसभा में उस साल सितम्बर महीने में विधानसभा में बहस चल रही थी और वक्ता थे नितीश्वर प्रसाद सिंह। उनका कहना था कि हमारे यहां एक सकरा बांध है। एग्जीक्यूटिव इंजीनियर से जब परामर्श किया गया तो उन्होंने इसकी और ध्यान नहीं दिया। जिला कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष श्री नारायण ठाकुर ने एग्जीक्यूटिव इंजीनियर से कहा कि यदि वह इस ओर ध्यान नहीं देना चाहते हैं तो जनता इसकी (बांध की) खुद मरम्मत करेगी। इस पर एग्ज़ीक्यूटिव इंजीनियर ने कहा कि, "यदि जन प्रयोग होगा तो हमें कानूनी कार्रवाई करनी पड़ेगी।"
विधायक का कहना था कि यदि प्रान्त के अधिकारी ऐसा करेंगे तो मानव की रक्षा कैसे हो सकती है? बाढ़ का पहला धक्का आया और सैकड़ों बस्ती, लोग और उनके मवेशी बह गये सिर्फ इसलिये कि एक अधिकारी ने चेतावनी नहीं ली। अधिकारी वर्ग के लोग भी काफी जिम्मेदार होते हैं लेकिन कहीं-कहीं अनुभवी अधिकारी के न होने से हानि भी होती है।
राहत कार्यों में एक विशेष वर्ग की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि कुछ लोग ऐसे भी हैं जो अपनी प्रतिष्ठा बचाने के लिये अपने बच्चों के मुंह में कपड़ा ठूंस लेते हैं ताकि भोजन न मिल पाने उन बच्चों की आवाज घर से बाहर न जाये लेकिन वह लोग आपके पास मदद के लिये आना पसन्द नहीं करते। ऐसे वर्ग के साथ आप सहयोग कीजिये। आप लोगों को बिना सूद के रुपया दीजिये। बेकार मजदूरों को राहत देने के लिये आपको मिट्टी के काम का एक साल के लिए प्रबन्ध करना चाहिये।
यह सब नहीं हुआ जिसका नतीजा है कि बाद के वर्षों में बिहार से श्रमजीवी, श्रमशक्ति एक्सप्रेस जैसे नामों की रेलगाड़ियां चलानी पड़ गईं ताकि बाहर के लोगों को पता लग सके कि सस्ते मजदूर कहां मिल सकेंगे। और अब तो बिहार से दिल्ली-पंजाब तक सीधी बसें भी जाने लगी हैं।