1976 की पटना की बाढ़-ग्राम मसाढ़ी, प्रखंड फतुहा, जिला पटना के श्री अलख देव सिंह से हुई मेरी बातचीत के कुछ अंश।
वह कहते हैं, 1976 की बाढ़ में हमारे गांव से छः किलोमीटर दूर पर फतुहा-इस्लामपुर लाइट रेलवे लाइन थी, जो फतुहा को इस्लाम पुर से जोड़ती थी, एकदम तहस-नहस हो गयी थी। उसमें कई जगह दरारें पड़ गयी थीं यहां तक कि कई जगहों पर यह रेल लाइन हवा में झूल गयी थी। सड़क का भी वही हाल था। वह भी छिन्न-भिन्न हो गयी थी। हमारे गांव से पक्की सड़क 6-7 किलोमीटर पर थी जहां तक जाने के लिये पगडंडी का ही सहारा था। हमारा गांव दो तरफ से भुतही कररुआ नदी से घिरा हुआ है और महताइन नदी उसे तीसरी तरफ से घेरती है। इसलिये गांव से बाहर निकलने का रास्ता बड़ा सीमित है। जो कुछ भी सम्पर्क बाहरी दुनिया से हो सकता था, वह इस बाढ़ में पूरी तरह से छिन्न-भिन्न हो गया था। पानी का करेन्ट इतना तेज था कि उस से होकर कोई चाहे कि कोशिश करके उस पार चला जाय तो वह सम्भव नहीं था।
गांव में अभी करीब 1000 घर हैं, उस समय कम रहे होंगे। पानी पश्चिम साइड से जो बेलदारीचक से पश्चिम-दक्षिण दिशा से चला तो हमारे गांव में आया फिर यहां से सैदनपुर, बीबीपुर, सतौली, बिंदौली, दौलतपुर, मानसीपुर, कंचनपुर और कुरली आदि गांवों से होता हुआ फतुहा की तरफ चला गया। हमारे गांव में पानी दिन में आया था और देखते-देखते गांव को घेर लिया था। पानी निचले इलाकों के घरों में तभी घुस गया पर हम लोगों के घर ऊपर थे जहां उसे घुसने में रात हो गयी थी। उनमें भी घुटने से अधिक पानी घुस आया था।
घर की सारी खटिया पानी में चली गयी थी। चौकी पर चौकी रख कर अनाज हम लोग बचा पाये। वह भी इसलिये हो सका क्योंकि पूरे गांव के सारे लोग, बाल-बच्चों समेत, अनाज बचाने में लगे हुए थे।
जिसके घर में छत थी तो उसका खाना छत पर बनता था। जिसका घर बांस-फूस का था वह बाढ़ के पानी में बह गया और मिट्टी वाला घर सब लिये-दिये बैठ गया। एक-एक छत पर 40-45 आदमी शरण लिये हुए होंगे। 17 तारीख को पानी आया था पर 23-24 तारीख से हेलीकॉप्टर से रोटी, प्याज, छोले या चने की सब्जी, पावरोटी, नमक, अचार आदि गिराना शुरू किया गया। ऐसा केवल दो बार हुआ था और वह शुक्रवार का दिन था। गांव की बहुत सी महिलाएं सन्तोषी माता का व्रत करती थीं और उनके लिये कोई भी खट्टी चीजें वर्जित थीं और अचार उनमें से एक था। इसलिये वह पैकेट उनके किसी काम नहीं आये।
यह सब सामान जिसके पास पक्की छत थी उसी पर गिरता था। इधर-उधर गिराने पर तो उसके पानी में ही चले जाने का डर था। हम लोग जितने आदमी थे वह किसी न किसी की छत पर चले गये थे। कच्चे और बांस-फूस के मकानों का तो वैसे भी कोई भरोसा नहीं था। हमारा गांव खाते-पीते राजपूतों का गांव था। उस समय तीन चौथाई पक्के मकान हमारे गांव में थे इसलिए स्थिति थोड़ी बेहतर थी। हमारे गांव का कोई आदमी मरा नहीं था और हमारा गांव पानी से हर तरफ से घिरे होने के बावजूद बीच में टीले जैसा है तो सारे जानवरों को वहीं लाकर रख दिया गया था। जब तक पानी रहा तब तक कोई अगर बीमार पड़ा हो तो उसे तो डॉक्टरी सुविधा मिलने का सवाल ही नहीं उठता था। पानी उतरने के बाद ही लोग निकल पाये।
बड़े लोग इन दौरान भूजा, चना खाकर रहे, पर बच्चों के लिये भी भूजा के साथ गांव की दुकानों से ही बिस्कुट आदि लाकर साथ में देते थे। हमारे गांव में कुछ परिवार कानू (भड़भूजे) भी थे जिनके यहां भीड़ लगी रहती थी। भूजा बड़ा सहारा हो गया था। वह भी कितना मिलता और कब तक मिलता क्योंकि बाहर से सामान लाने के सारे रास्ते बन्द थे? यह समय बड़ा कष्ट में बीता और जन-जीवन सामान्य होने में एक पखवाड़ा लग गया था। हेलीकॉप्टर से महीने के आखिर तक भोजन सामग्री गिरायी गयी थी।
रेलगाड़ी बन्द थी। अगर चलती भी तो वहां तक पहुंच पाना सम्भव नहीं था। हमारा बाजार यहां से 7 किलोमीटर दनियावां या फतुहा है। उन दिनों सड़क सम्पर्क कोई था नहीं, पगडंडी का रास्ता था। सड़क कुछ साल हुआ, इधर बनी है। हमारा गांव तो वैसे भी छोटी मोटी बाढ़ भी आ जाये तो पानी से घिर जाता था।
श्री अलख देव सिंह