अब जिनकी बारी आयी, वह बहुत ही मृदुभाषी, दुबले पतले और संघर्षशील अधेड़ व्यक्ति थे और इमरजेंसी में जेल जा चुके थे. जात-पात से एकदम ऊपर जो बंगाली लोग वैसे भी अधिकतर होते ही हैं, वह केवल दो जात मानते थे अमीर और गरीब, जिसका कई बार मुजाहिरा मेरे साथ कई यात्राओं में किया भी था. बर्धमान आते-जाते हुए मैं उनका प्रशंसक हो गया था. ऐसे सौम्य व्यक्ति से एम्.डी. साहब ने सवाल किया, “आप कौन हैं महाशय?”.
अपना नाम-ठिकाना बताने के बाद उनका जवाब था,
“मैं एक किसान हूँ और खेती बारी
से मेरा परिवार चलता है, मैं इस सहकारी समिति का
सेक्रेटरी भी हूँ.”
एम्.डी. साहब बोले, “किसान तो पेपर मिल का सेक्रेटरी नहीं हो सकता, आप निश्चित तौर पर कुछ और जरूर करते हैं.”
जवाब था, “जी, मैं पंचायत का सेक्रेटरी भी हूँ.”
एम्.डी. साहब का स्वतःस्फूर्त उत्तर था – “इसका मतलब है कि आपने बहुत पैसा मारा है. वही तो मैं सोच
रहा था कि इतनी छोटी जगह में, चाहे कितनी भी छोटी पेपर मिल
क्यों न हो, बिना पैसे के चलने वाली नहीं
है. मैं अब सब समझ गया.”
इसके बाद एम्.डी. साहब ने पंचायतों में व्याप्त भ्रष्टाचार
पर एक अच्छा सा भाषण दिया और सेक्रेटरी साहब अपने बचाव में काफी सफाई देते रहे.
शासन-प्रशासन में अपने सम्पर्कों का हवाला दिया, जेल की यातनाओं का ज़िक्र किया मगर एम्.डी. साहब से पार पाना उनके लिए संभव
नहीं था. फिर भी उन्होनें एम्. डी. को समझाने की कोशिश की कि इससे उनके क्षेत्र
में नौजवानों को रोज़गार मिलेगा और पुआल का बेहतर उपयोग हो सकेगा. सहकारी समिति
होने की वजह से बहुत से लोगों को उससे भी आमदनी हो पाएगी और क्षेत्र में उनके
प्रयास से कुछ घरों में दोनों शाम चूल्हे जलेंगे. उन दिनों बंगाल में बर्गादारी
आन्दोलन अपने चरम पर था. मुझे लगा कि एम्.डी. साहब की कुछ जमीन उनके बटाईदारों के
पास चली गयी हो, इसलिए शायद उनको पंचायतों से कुछ परेशानी हुई हो.
बात यहीं समाप्त हो गयी और अब एम्.डी. साहब के निशाने पर वह
भद्र महिला थीं, जिनका ज़िक्र मैने पहले किया था. नाम-गाँव की चर्चा के बाद एम्.
डी. साहब ने समय नष्ट न करते हुए सीधा सवाल पूछा “आप क्या करती हैं?”
“मैं एक समाज सेविका हूँ.”
“शादी हो गयी है?”
“जी.”
“माथे में सिन्दूर क्यों नहीं है
और हाथ में शाखा चूड़ी कहाँ है?”
“मैं दाम्पत्य के इन सब प्रतीकों
में विश्वास नहीं करती.”
“ लेकिन यह हमारी संस्कृति के
विरुद्ध है. लगता है बहुत पढ़ी लिखी हैं. बच्चे कितने हैं?”
“अभी कोई नहीं है.”
“शेई जोन्ने चार-दिके नेचे
बेडाच्छेन.” “(इसी लिए चारों तरफ नाचती घूम
रही हैं.)”
“आप के पतिदेव क्या करते हैं?”
“वह इंग्लैंड की एक विदेशी सेवा
संस्थान में काम करते हैं, जो विपन्न, गरीब-दुखिया लोगों के बीच काम करती है.”
“अंग्रेजों का सेवा और
गरीब-दुखिया लोगों से क्या वास्ता है? वो तो सारी पृथ्वी पर राज कर गए थे और उनका सूरज कभी डूबता नहीं था. इतना
विस्तार तो समाज सेवा से नहीं होता है, राजदंड और लूटपाट से होता है जिसके लिए वह सारी दुनियां में फैले और इसके लिए
कुख्यात हैं. वहाँ जरूर कुछ चक्कर है जो आप लोगों की समझ में नहीं आता है या आप
लोग समझना नहीं चाहते हैं. उनके यहाँ गरीब नहीं हैं क्या? मैं नहीं मानता कि गोरे लोग हमारे यहाँ केवल समाज सेवा के
लिए काम करेंगें. उनका कोई न कोई स्वार्थ जरूर है. ज्यादा से ज्यादा यह वहाँ के
पैसे वालों की विलासिता हो सकती है पर समाज सेवा, कभी नहीं. हमारा सारा माल लूट कर ले गए और बदले में चाय पीना सिखा गए. बस.”
अब जिगर थाम कर बैठो मेरी बारी आई...
क्रमशः – 3