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डॉ. जी.डी. अग्रवाल और मैं : भाग – 4

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  • Dr Dinesh kumar Mishra
  • October-25-2018

अगले दिन वापस जाने का कार्यक्रम था. डॉ. लुन्कड़ पहले ही प्रस्थान कर चुके थे. मैं, भाई साहब और तरुण भारत संघ के डॉ. संजय सिंह सपत्नीक जीप में बैठे थे. भारतपुर होते हुए हमलोग आगरे की तरफ बढे. रास्ते में भाई साहब से बाढ़ के बारे में बहुत सी बातें हुईं और उन्होनें मुझे देश-विदेश में हुए बहुत से कामों से परिचित करवाया. इनमें से कुछ की जानकारी मुझे तब थी तो कुछ नहीं भी जानता था. आदतन मैं उनकी हर बात को बिहार के सन्दर्भ में देखता था और उस पर सवाल पूछता था और वह उत्तर देते जाते थे. उन्होनें रास्ते में कहीं उतर कर अपने गाँव कांधला, मुज़फ्फरनगर जाने की इच्छा व्यक्त की. उनका कार्यक्रम पहले से निश्चित रहा होगा. मैंने उनसे पूछा कि अगर मैं कभी उनको बिहार बुलाऊँ तो क्या उनको समय हो पायेगा. उनका कहना था की थोडा पहले बता बता दोगे तो मैं आ जाउंगा. मैंने उससे यह भी पूछा कि अभी वह चित्रकूट नहीं जायेंगें? याद दिला दूं कि उन दिनों वह वहीं रहते थे. उनका उत्तर बड़ा प्रेरक था. उन्होनें कहा कि उनके घर में अब उनसे बड़ी एक चाची हैं. वह अभी भी उन्हें उसी तरह डांटती हैं जैसे उनके बचपन में डांटती थीं. “खाता नहीं है – दुबला रह जाएगा, पढ़ता नहीं है - मन लगा कर पढ़, कसरत किया कर, इधर उधर मत घूमा कर, दूध पीया कि नहीं? आदि आदि. ”उनमें मेरे प्रति कोई बदलाव नहीं आया है,  मुझे अभी भी बच्चा ही समझती हैं. इसलिए उनकी डांट खाना जरूरी होता है और मैं उनसे मिलने जा रहा हूँ.”

मैंने उन्हें 1997 में याद किया कि हम लोग कोसी के पश्चिमी तटबंध के पास निर्मली (जिला सुपौल) में 5 और 6, 1997 अप्रैल को एक सम्मलेन करने जा रहे थे. ठीक इसी तारीख को पचास साल पहले 1947 में निर्मली में देश-दुनियां के बड़े-बड़े इंजीनियर डॉ. जे.एल.सीवेज, डॉ. निक्केल, जिनको अमेरिका में बड़े-बड़े बांधों के निर्माण का गौरव प्राप्त था, भूगर्भ शास्त्री जे. बी. ओडेन, और देश के महत्वपूर्ण राजनेता डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, डॉ.श्रीकृष्ण सिंह (तत्कालीन प्रधान मंत्री – बिहार), डॉ. सी.एच. भाभा (तत्कालीन योजना मंत्री केंद्र सरकार) और श्री गुलजारीलाल नंदा आदि 60,000 कोसी पीड़ितों की कहानी सुनने और इस नदी पर नेपाल में बाँध बनाने का प्रस्ताव लेकर इकट्ठा हुए थे. हमारी मुराद थी कि इन पचास वर्षों में कोसी को नियंत्रित करने और उस पर नेपाल में बाँध को लेकर क्या हुआ उसकी समीक्षा की जाए. उस वक़्त डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने आशा व्यक्त की थी कि नेपाल में कोसी पर बाँध बन जाने के बाद यह इलाका खुशहाल हो जाएगा और उनकी इच्छा थी कि वह उस दिन तक ज़िंदा रहें और खुद वह दिन देखें. उनकी इच्छा पूरी नहीं हुई और न वश बाँध ही बना. बदले में बना कोसी नदी पर तटबंध जिसके बीच में इस समय के हिसाब से करीब 15 लाख की आबादी फँसी है. यह तटबंध बने उस समय (1997 तक) 36 वर्ष बीत चुके थे. यह पूरी कहानी अन्यत्र उपलब्ध है अतः मैं उसके विस्तार में नहीं जाऊँगा पर हमारे निमंत्रण पर जी.डी. बिहार आये और हम लोगों के साथ निर्मली धर्मशाला में रहे.

दो दिन चली इस इस समीक्षा बैठक में अग्रवाल साहब का भाषण हुआ जिसे हम यहाँ शब्दशः उद्ढ़रित कर रहे हैं. उनका कहना था कि, “तटबंधों का तिकड़म इंजीनियरों का षड्यंत्र था.स्वयं इंजीनियर होने के नाते मैं ये कहना चाहूँगा कि आप स्वयं इस मुद्दे को इसी दृष्टि से देखें. सिविल इंजीनियरिंग का प्रारम्भ सबसे पहले रूडकी विश्वविद्यालय में अंग्रेजों के ज़माने में हुआ. उससे पहले सिखाये हुए इंजीनियर नहीं होते थे. तो क्या अंग्रेजों के समय में यह तटबंध बने? कई जगहों पर कई बार यह बात कही गयी है कि अंग्रेजों के समय में स्वयं इंजीनियरों ने ही यह बात उठायी थी कि इस क्षेत्र के लिए तटबंध बनाना उचित नहीं है. उड़ीसा में बाँध तोड़ने का निर्णय स्वयं द्वारा लिया गया था. तो फिर क्या हुआ जो बिहार में इस तरह बना? दरअसल योजना बनाने के पूर्व बाँध बनाने की इच्छा इंजीनियरों की नहीं थी.

इसी तरह जब सडकों या रेलों के जाल बिछाने की बात उठती है, तब भी तकनीक पर प्रश्नचिह्न लगता है. मैदानी इलाकों में इस प्रकार के विस्तार की बात से जल-निकासी पर असर पड़ता है क्योंकि एक तरफ इन संसाधनों का जाल बिछाने का वायदा होता है और दूसरी तरफ योजनाओं का बढ़ता हुआ खर्च, और तब सारी बचत पुलों, कलवर्ट या अन्य जल निकासी के साधनों पर ही होती है. अब इंजीनियर जाल न बिछाएं तो क्या करें?

इसके अलावा मैं एक बात और कहना चाहूँगा कि जब भी कोई प्रकल्प बनेगा तब उसके लिए समाज को कुछ न कुछ बलिदान अवश्य देना होगा. यह विस्थापन की शक्ल में हो डूब क्षेत्र के रूप में हो या अन्य किसी रूप में. यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि ऐसे लोगों के साथ नाइंसाफी न हो. यह मुद्दा अवश्य ही तकनीकी नहीं है.

एक इंजीनियर होने के नाते मुझे यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि भारतीय वैज्ञानिकों और इंजीनियरों को रीढ़ नहीं होती. विज्ञान की शिक्षा रीढ़ को समाप्त कर देती है और प्रशासकीय शिक्षा दिमाग को तिकड़मी-चालबाज़ बना देती है. मेरे विचार से इंजीनियरिंग का मूल सिद्धांत यही है कि इंजीनियर वही करेगा जो समाज चाहेगा. यदि समाज कोसी योजना नहीं चाहता तो इंजीनियर ऐसा नहीं कर पाते. अब समाज किसके माध्यम से काम करे – यह एक यक्ष प्रश्न बना हुआ है. इस यक्ष-प्रश्न का उत्तर हमें तय करना होगा. मैं तो यह कहूँगा कि सरकार को जल संसाधन को छेड़ने की अनुमति कत्तई नहीं होनी चाहिए. न सिंचाई का सम्बन्ध सरकार से होना चाहिए और न बाढ़ नियंत्रण का और न जल के किसी अन्य प्रकार के प्रबंधन से. जल और ज़मीन का प्रबंधन जनता सीधे अपने आप ग्राम पंचायत, क्षेत्रीय पंचायत या अधिक से अधिक जिला पंचायत के माध्यम से करे. सरकार अधिक से अधिक तकनीकी सलाह एवं आर्थिक संसाधन माँगने पर दे सकती है.

डॉ. अग्रवाल ने अपने वक्तव्य का समापन करते हुए कहा कि, “बदलते परिवेश में पब्लिक इंटरेस्ट लिटिगेशन (जनहित याचिका) की चर्चा अभी पूरे देश में जोरदार ढंग से चल रही है. आप लोगों को पता होगा कि कुछ दिनों पूर्व माननीय न्यायाधीश कुलदीप सिंह जी ने सुप्रीम कोर्ट में आदेश दिया था कि गंगा स्वच्छता परियोजना (उत्तर प्रदेश) के अंतर्गत पिछले वर्षों में जो 5-6 सौ करोड़ रुपये खर्च किये गए उसमें गंगा के पानी की गुणवत्ता को कोई लाभ नहीं हुआ. आगे से एक भी पैसा नहीं खर्च किया जा सकता है जब तक परियोजना सुप्रीम कोर्ट को इस बात से संतुष्ट न करा दे कि जो कुछ वह करने जा रही है उससे गंगा के प्रदूषण में वास्तव में कमी आएगी. क्या इस तरह का आदेश सुप्रीम कोर्ट नहीं दे सकय कि उत्तर बिहार में बाढ़ नियंत्रण के नाम पर जो करोड़ों–करोड़ खर्च किया गया उससे बाढ़ की समस्या घटने के बजाय बढ़ी, क्यों इस परियोजना को आगे से एक भी पैसा खर्च करने पर रोक लगा दिया जाए और अब तक के लाभ-हानि की व्यापक समीक्षा जनता की भागीदारी से हो.”

यह बात 21 साल पहले की है पर सारे सवाल अपनी जगह मौजूद हैं. तटबंधों के मूल्यांकन का काम अभी तक नहीं हुआ और, जिस तरह के लक्षण दिखाई पड़ रहे हैं, न कभी होगा. इसमें जनता की भागीदारी का तो कोई सवाल ही नहीं उठता, क्योंकि सरकार जनता को layman लेमैन (मूर्ख) समझती है. यानी जो आदमी अपने जन्म से मृत्यु तक नदी के किनारे वास करता है और उसकी एक-एक व्यवहार से वाकिफ है वह मूर्ख और जो चार साल किसी कॉलेज में इंजीनियरिंग पास करके लौट आया वह एक्सपर्ट (विशेषज्ञ) बन जाता है. इन दोनों के बीच में, यानी जिसके लिए योजनायें बनती हैं, जिसके पास नदियों के साथ रहने का जीवन्त अनुभव है, जो नदी जो अपनी माता मानता है पर सिर्फ गणित नहीं जानता और वह जो इन योजनाओं को मूर्त रूप देता है, गणित और विज्ञान की जिसने पढ़ाई कर रखी है पर जिसका नदी से पहले से शायद ही कोई रिश्ता रहा हो, उनके बीच कोई संवाद है ही नहीं. अब आम जनता किसके माध्यम से सरकार से वार्ता कर सकती है वह है राजनीतिज्ञ जिस पर एक मर्तबा चुन लेने के बाद जनता का कोई नियंत्रण ही नहीं रह जाता है. विशेषज्ञ ऐसे ही राजनीतिक तंत्र के अधीन काम करता है, उसका वास्ता जनता से नहीं पड़ता है, वह आदेश सरकार से आदेश लेता है जनता से नहीं, जबकि दोनों का कहना यही होता है कि उनका सारा काम लोकहित में हो रहा है. हम इसी दौर से गुज़र रहे हैं और कब तक यह दौर कायम रहेगा कह पाना मुश्किल है.

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