7 अप्रैल, 1997 को जब मैंने उन्हें पटना स्टेशन पर रेल गाडी में बिठाया तब तब वह सतना चले गए थे और वहाँ से चित्रकूट गए. उसके बाद उनसे कभी-कभी पत्र व्यवहार होता था. मैं अगर कोई किताब लिखता था तो उसकी एक प्रति उन्हें जरूर भेजता था. जाहिर है उनसे संपर्क घटता जा रहा था. मगर राजेन्द्र सिंह जी से भेंट होती थी तो उनका हाल-चाल मिल जाया करता था. सन 2000 से मेरा देहरादून आना-जाना शुरू हुआ क्योंकि डॉ. रवि चोपड़ा को मेरी एक किताब ‘बोया पेड़ बबूल का– बाढ़ नियंत्रण का रहस्य’ पसंद आ गयी थी और उनका कहना था कि इस किताब का अंग्रेजी में अनुवाद होना चाहिए. मुझे अंग्रेजी आती तो जरूर है क्योंकि बी.एससी. और उसके बाद इन्जीनियरिंग की पढ़ाई तो अंग्रेजी में ही हुई थी. मगर किताब लिख पाना मेरी क्षमता के बाहर था. मैंने उन्हें अपनी कमजोरी बतायी तो उनका कहना था कि तुम्हारी अंग्रेजी का अंग्रेजी में अनुवाद और सम्पादन हम कर देंगें लेकिन अपनी अंग्रेजी में तुम्हें ही लिखना पड़ेगा और मेरे साथ बैठना पड़ेगा. सौदा बुरा नहीं था. देहरादून आने-जाने से रवि चोपड़ा जी से अग्रवाल साहब की खबर मिल जाया करती थी और शायद मेरी खबर भी उनको मिल जाती होगी. बाद में इस श्रृंखला में राजेन्द्र सिंह जी भी शामिल हो गए जिनसे मेरी मुलाक़ात बैठकों में हो जाया करती थी.
यह सिलसिला 2008 तक चला और अभी भी जारी है. मैं किताबें लिखता जा रहा था अब भी लिख रहा हूँ इस उम्मीद पर कि अंग्रेजी वाला काम रवि चोपड़ा जी संभालेंगे. 2008 का ज़िक्र इसलिए करना पडा क्योंकि इस साल पहली बार अग्रवाल साहब उत्तरकाशी में भूख हड़ताल पर बैठे थे. उस समय बी.सी. खंडूरी उत्तराखंड के मुख्य मंत्री थे. उनकी मांग बहुत बड़ी नहीं थी और वो सिर्फ इतना ही चाहते थे कि गोमुख से लेकर उत्तरकाशी तक गंगा कि जो 125 किलोमीटर की लम्बाई है उसे उसके प्राकृतिक स्वरुप में छोड़ दिया जाए और इस दूरी में कोई बाँध या सुरंग न बनायी जाए. उनका मानना था कि बाँध या सुरंग बनाने से नदी का स्वरुप विकृत हो जाएगा और इससे वहाँ की पारिस्थिकी पर बुरा असर पड़ेगा. मैं उनसे मिलने के लिए उत्तरकाशी चाहते हुए भी नहीं जा पाया था क्योंकि उसी समय में कोसी वाली अंग्रेजी पुस्तक का सम्पादन रवि चोपड़ा जी कर रहे थे और मैं देहरादून से हिल नहीं सकता था. राज्य सरकार ने उनको मना लिया और सारे आश्वासन देकर भूख हड़ताल तुड़वा दी. यह एक जीत जैसी थी मगर सरकार का मकसद सिर्फ इतना ही था कि हड़ताल टूट जाए. अपने वायदों से उसका कोई लगाव नहीं था.
जब बांधों का निर्माण चलता रहा और वायदे सच्चे नहीं निकले तब 2009 में जून महीने में उत्तरकाशी में ही फिर अग्रवाल साहब भूख हड़ताल पर बैठे और इस बार मैं उनसे मिलने उत्तरकाशी गया था और वह अगले दिन भूख हड़ताल पर जाने वाले थे. वहां मेरी भेंट पानी बाबा (अब स्वर्गीय अरुण कुमार जी) और मानिकपुर के गया प्रसाद गोपाल जी से भी हुई जिनके सौजन्य से 1992 में मेरी मुलाक़ात भाई साहब से हो पायी थी. वहीं मुझे उत्तम स्वरुप अग्रवाल भी मिले जो अग्रवाल साहब के छोटे भाई थे और खड़गपुर में मेरे सहपाठी थे. इसी रिश्ते से मैं उन्हें भाई साहब कहा करता था. प्रख्यात पर्यवारणविद एम्. सी. मेहता भी उस दिन वहाँ मौजूद थे. बहुत से लोगों के बीच हर समय घिरे रहने वाले भाई साहब ने थोडा समय मुझे भी दिया. मेरी जानकारी उत्तराखंड के बांधों के बारे में सतही थी, अभी भी कुछ बदला नहीं है, पर जो उन्होनें कहा वह मुझे अच्छी तरह याद है.
उनका कहना था कि अब मैं आस्था की लड़ाई लड़ रहा हूँ. गंगा के साथ कोई ऐसी छेड़-छाड़ नहीं होनी चाहिए कि लोग उसमें स्नान करने के लिए तरस जाएँ. यहाँ नदी या तो बाँध के पीछे ठहर जायेगी या सुरंग में रह जायेगी. आम आदमी को गंगा के दर्शन मुश्किल हो जायेंगें. सरकार, जैसा कि मुझे अपने दो-तीन दिन के प्रवास में वहां लगा, झुकने के लिए अभी भी तैयार नहीं थी और अगर मुझे ठीक याद है तो उस बार उनके पाससन्देश आया था कि एक काशी तो नीचे भी है, जो कुछ मांगना है वहीं जाकर मांगिये, उत्तरकाशी को छोड़ दीजिये. भाई साहब ने यह भी बताया कि जहां तक टेक्नोलॉजी का सवाल है, मैं इन सरकारी इंजीनियरों से बेहतर जानता हूँ और इस क्षेत्र में मेरा अनुभव भी कम नहीं है. अगर सरकार टेक्नोलॉजी के मसले पर किसी को मेरे पास भेजती है तो बहुत मुमकिन है कि जो बहस करने के लिए आएगा वह मेरा छात्र रहा हो. वह मुझसे क्या तर्क करेगा? उन्होनें अपना निश्चय दुहराया कि मैंने फैसला कर लिया है कि गंगा के लिए अगर जान दे देनी पड़ेगी तो दे दूंगा. एक दिन और उत्तरकाशी रह कर मैं वापस चला आया. कुछ दिनों बाद उन्होने फिर आश्वासन पा कर अपना अनशन तोड़ा, फिर वायदे हुए और फिर उनका पालन नहीं हुआ. फिर एक बार उन्होनें दिल्ली में बिरला मंदिर के पास अपनी मांगों को लेकर अनशन किया और यही मेरी उनसे आखिरी मुलाक़ात थी.
उनकी मांगें समय के अनुकूल बदलती और बढती जा रही थीं. जैसे-तैसे उनका उनका अनशन तुड़वा दिया जाता था और वह फिर जा बैठते. इस बार भी आश्वासन ही मिले और मुकाबला निर्णायक रहा जब 11 अक्टूबर को उन्होनें अपना कौल रखा और जान दे कर ही दम लिया. अब उम्मीदों के सारे रिश्ते टूट गए और और किसी शिकवा-शिकायत कि जरूरत भी नहीं रही. यहाँ मैं याद दिला दूं कि मैंने 1947 से लेकर अब तक कि बिहार विधान सभा की पानी से सम्बंधित प्रायः सारी कार्रवाई रिपोर्टें पढी हैं. कभी-कभी मैंने देखा है कि अगर जन-विक्षोभ आन्दोलन कि शक्ल ले ले और उस पर काबू पाना मुश्किल हो रहा हो तो सरकार में बैठा कोई न कोई सम्बंधित मंत्री यह बयान जरूर देता है कि सरकार किसी से डरती नहीं है. मैं यकीन के साथ कह सकता हूँ कि सरकार सचमुच किसी से डरती नहीं है, खासकर उससे तो हरगिज़ नहीं जो निरीह हो. सच यह भी है कि विक्षोभ के कारवां रुकते नहीं हैं. वह कमज़ोर पड़ सकते हैं, सामयिक तौर पर झुक सकते हैं लेकिन वह कभी हारते नहीं हैं. हाल के वर्षों में स्वामी निगमानंद की भेंट चढ़ी, अभी प्रोफ़ेसर अग्रवाल (स्वामी ज्ञान स्वरुप सानंद) ने उनकी जगह ली और कतार में और भी लोग लगे हुए हैं. किसी ने ठीक ही कहा है,
“जफा करना तेरा शेवा, वफ़ा करना मेरी आदत,वो तेरा काम है साकी, ये मेरा काम है साकी."
"नमन और श्रद्धांजलि स्वामी सानंद."
समाप्त.