कल
बिहार सरकार ने एक अन्य जिले सीतामढ़ी को सूखा प्रभावित घोषित किया. वहाँ के
बाजपट्टी प्रखंड की वजह से यह इज्ज़त सीतामढ़ी को मिली. अब बिहार के 24 जिले सूखा प्रभावित हो
गए. मेरे कई मित्रों से मुझे खबर मिली कि उनका इलाका सूखाग्रस्त होते हुए भी सूची
में शामिल नहीं किया गया और सूखाग्रस्त क्षेत्र की मान्यता पाने के लिए सरकार में
पहुँच होना जरूरी हो गया है. सच यह है कि रेवड़ी बांटने का भी एक नियम होता है,
जिसकी अवहेलना नहीं की जा सकती. इसलिए हमें उदास नहीं होना चाहिए और अपना पक्ष
किसी माकूल जरिये से रखने के की तलाश करनी चाहिए.
मैं
अभी पिछला सूखा जो 2005 में राष्ट्रपति शासन के दौरान पडा था, उसकी रिपोर्ट पढ़ रहा था. वह 2004
के
सूखे के बाद का साल था, जब हथिया का भी पानी नहीं बरसा था, तो हालत खराब ही थी.
फिर मार्च, अप्रैल
और मई में जो मानसून पूर्व वर्षा हो जाती थी, वह औसतन 90 मि. मी. कि जगह 36 मि.मी. ही हुई थी.
उस
साल गर्मी में बिहार में तापमान 47 डिग्री के ऊपर चला गया
था जो 1966 के बाद पहली बार हुआ था. सूखा सर पर था, इसके आसार जून में ही
दिखाई पड़ने लगे थे. पटना से प्रकाशित होने वाले दैनिक जागरण ने अपने 4 जून के सम्पादकीय में ‘सिहरे किसान’ शीर्षक से लिखा था,
“सूखे की आशंका से सिहरे प्रदेश के किसान वस्तुतः उन तमाम सरकारी कारनामों का खुलासा है, जो आज़ादी की आधी सदी बाद भी किसानों को पूरी तरह मानसून आधारित रखे हुए है. इसमें सिंचाई योजनाओं कि तो पोल खुली ही है, यह भी साबित होता है कि कैसे राजपाट चलाने वालों ने अर्थव्यवस्था के मूलाधार इस जमात को ठगा, उसे खतरनाक भ्रम दिया.”
दुर्भाग्य
है कि रोहिणी नक्षत्र का आधा समय बीत गया, मगर खरीफ की पर्याप्त बुआई नहीं हुई है.
ध्यान रहे यह सब कुछ लुटा चुके किसानों का जानलेवा संकट है. बीते वर्ष के सूखे से
टूटी उनकी कमर अब तक सीधी नहीं हुई है. क़र्ज़ से लदे इन किसानों को शासन बेहतरी का
पुख्ता भरोसा दे. ऐसी व्यवस्था हो कि वे फसल लगाने से न हिचकें. तत्काल सिंचाई के
ठोस प्रबंध किये जाएँ...शासन में बैठे लोग यह बताएं कि अगर सब कुछ प्रकृति पर ही
आधारित है, तो फिर आधुनिक संयंत्रों वाली सिंचाई परियोजनाओं का क्या मतलब है? क्यों नहीं उन विभागों
का अस्तित्व समाप्त कर दिया जाए जो खेतों में पानी पहुंचाने का जिम्मा रखे हुए
हैं. दरअसल, इधर
के वर्षों में शासन के स्तर से किसानों की उपेक्षा खूब बढ़ी है. खेती यूँ ही सबसे
घाटे का सौदा नहीं बनी. कृषि आधारित अर्थ व्यवस्था से नापाक खेल की प्रवृत्ति
बदलें. डीज़ल, केरोसीन
की कालाबाजारी रोकी जाए. गाँवों में समुचित मात्र में बिजली उपलब्ध हो.
जब
ऐसे हालात कि जानकारी जून महीनें में हो गयी थी तब बीच के कुछ बाढ़ के मौकों को छोड़
कर सूखे ने जुलाई महीने के अंत में चिंताजनक स्थिति पैदा कर दी. तब 3 अगस्त को तत्कालीन कृषि
उत्पादन सचिव ने पटना में एक प्रेस-वार्ता बुलाई और उसमें राज्य के कई वरिष्ठ
अधिकारियों की मौजूदगी में पत्रकारों को बताया कि राज्य में सूखे का मुकाबला पानी
और दूसरे संसाधनों के कुशल प्रबंधन से किया जाएगा. शहरी क्षेत्रों में रात के आठ
बजे से लेकर सुबह दो बजे तक कटौती कर के ग्रामीण क्षेत्रों को बिजली दी जायेगी.
राज्य के 350 नलकूपों को 15 दिनों के भीतर
ट्रांसफार्मर की आपूर्ति कर के चालू कर दिया जाएगा. प्रत्येक पेट्रोल टैंक पर हर
समय एक हज़ार डीज़ल की व्यवस्था सुनुश्चित की जायेगी ताकि किसानों को डीज़ल की कमी
महसूस न हो. ग्रामीण क्षेत्रों में बिजली के तार और ट्रांसफार्मर के तेल की चोरी
रोकने के लिए पुलिस विभाग को सतर्क कर दिया गया है. उन्होनें यह भी कहा कि राज्य
में 36 प्रतिशत धान रोप दिया गया है जबकि पांच अगस्त तक यह काम शत प्रतिशत
पूरा हो जाना चाहिए था. उन्होनें मौसम विभाग के हवाले से यह सूचना दी कि अगले 48 घंटों में राज्य में
बारिश होने का अनुमान है. उनका मानना था कि राज्य में खाद, बीज, कीटनाशक, दवाओं और सिंचाई के लिए
पर्याप्त डीज़ल उपलब्ध है और पानी को नहरों के अंतिम छोर तक पहुंचाने का प्रयास
किया जा रहा है. राज्य के विकास आयुक्त के साथ आज ही हुई एक बैठक का वास्ता देते
हुए उन्होनें आगे कहा कि सिंचाई स्रोतों को जीवित करने की एक योजना विभिन्न
विभागों के साथ मिल कर तैयार की गई है.
सवाल
बस इतना ही उठता है कि जब राज्य पिछले साल में सूखा भोग चुका था तो इस बार पहले से
तैयारी क्यों नहीं कि गई थी? पानी का कुशल प्रबंधन
अब तक करने से सरकार को कौन रोक रहा था जो यह बात अब कही जा रही थी? सचिव महोदय खुद जब यह
कहते हैं कि रोपनी का काम 5 अगस्त
तक पूरा हो जाना चाहिए था और 15 दिनों के अन्दर 350 ट्रांसफार्मर
बदल कर उसे चालू कर दिया तो क्या कृषि उत्पादन सचिव यह नहीं जानते हैं कि तब जो
धान रोपा जाएगा उससे होने वाली उपज कितनी होगी? अगले 48 घंटों में वर्षा होने
की बात कह कर क्या वह किसानों की जगह खुद को तसल्ली नहीं दे रहे थे? और बिजली के तार तथा
ट्रांसफार्मर से तेल चोरी होने की घटना का संज्ञान क्या सूखा पड़ने के बाद ही लिया
जाना जरूरी है? क्या
यह सर्वकालिक समस्या नहीं है?
पृष्ठभूमि आज भी यही है. हमें आशा करनी चाहिए कि इस बार सरकार सही कदम उठाएगी और कम से कम रबी फसल को बचाने में किसानों कि मदद करेगी क्योंकि खरीफ तो गई. अगर ऐसा नहीं होता है तो किसान भाइयो! अपनी खेती खुद संभालिये और हाँ, रिलीफ बांटना इस समस्या का समाधान नहीं है, कभी समय मिले तो इस पर भी विचार किया जाना चाहिए.