बिहार
सरकार ने हाल में 26 अक्टूबर, 2018 को राज्य में सूखे कि
हालत पर एक प्रेस विज्ञप्ति जारी की है.
"अल्प वर्षापात के आलोक में राज्य के 23 जिलों के 206
प्रखंड
सूखाग्रस्त घोषित."
कृषि
विभाग, बिहार
के पत्रांक 5184, दिनांक 15-10-2018 से प्राप्त विस्तृत प्रतिवेदनानुसार 23 जिले यथा पटना, भोजपुर, बक्सर, कैमूर, गया, जहानाबाद, नवादा, औरंगाबाद, सारण, सिवान, गोपालगंज, मुजफ्फरपुर वैशाली, दरभंगा, मधुबनी, समस्तीपुर, मुंगेर, शेखपुरा, जमुई, भागलपुर, बांका, नालंदा एवं सहरसा के
कुल 206 प्रखंड में खेती की गयी ज़मीन में दरार उत्पन्न हो गई है अथवा फसलों
में मुरझाने (wilting) का प्रभाव है अथवा उपज में 33 प्रतिशत या उससे अधिक
उत्पादन में कमी संभावित है. दिनांक 15-10-2018 को
माननीय मुख्यमंत्री, बिहार
की अध्यक्षता में इसकी समीक्षा के गई, जिसके आलोक में राज्य के 23 प्रभावित जिलों के 206
प्रखंडों
को सूखाग्रस्त घोषित किया गया है.
“सूखाग्रस्त क्षेत्रों में नियमानुसार दी जाने वाली सहायता प्रावधानों को लागू कर सूखाग्रस्त जिलों के सम्बंधित प्रखंडों में फसलों को बचाने, वैकल्पिक कृषि कार्य की व्यवस्था, पशु संसाधनों का रख-रखाव एवं अन्य सहायक कार्यों की व्यवस्था घटनोत्तर स्वीकृति दी गई है.”
आज
से 14 साल पहले सन 2004 में राज्य में इसी तरह
से सूखा पड़ा था. 2004 को अमूमन हम सभी लोग
बाढ़ की विभीषिका के वर्ष के रूप में जानते हैं. लेकिन उस साल अगस्त महीनें के बाद
राज्य में वर्षा प्रायः हुई ही नहीं और हथिया नक्षत्र का पानी तो एकदम ही गायब था.
सूखा मुकम्मल था. मैं यहाँ पटना से प्रकाशित उस साल के एक सम्पादकीय को उद्धृत कर
रहा हूँ, जो दैनिक जागरण में ‘किसानों पर मार’ शीर्षक से 12 अगस्त,
2004 के
अंक में प्रकाशित हुआ था.
राज्य
में बिगड़ती वर्षा की स्थिति और सिंचाई की सरकारी व्यवस्था के गर्त में चले जाने कि
चर्चा करते हुए अखबार लिखता है, देश के अन्य राज्यों
में भी बाढ़ और सूखा जैसी आपदाएं आती रहती हैं, किन्तु वहाँ प्रदेश की
सरकारें अपने स्तर से किसानों के आंसू पोंछने का प्रयास करती हैं. लेकिन बिहार में
किसान पूरी तरह से इंद्र देवता की कृपा पर ही निर्भर हैं. यदि पानी नहीं बरसा या
औसत से कम वर्षा हुई तो उसके सामने दूसरा कोई चारा नहीं होता क्योंकि सिंचाई के
वैकल्पिक साधनों का उसके पास नितांत अभाव है. कहने के लिए सरकार ने राजकीय नलकूप
लगा रखे हैं लेकिन उनमें से अधिकाँश तो खराब ही पड़े रहते हैं....सबसे बड़ा संकट
सिंचाई का है. किसान किसी तरह खेत जोत कर उसकी निराई-गुड़ाई करके बीज डालता है और
इंद्र देवता रुष्ट हो जाते हैं, जिससे उसकी सारी मेहनत पर पानी फिर जाता है. कई
बार तो उसके सामने भुखमरी तक की नौबत आ जाती है. जहां तक कृषि-ऋण का सम्बन्ध है तो
वह भी सर्वसुलभ नहीं है. सहकारी और राष्ट्रीयकृत बैंकों के चक्कर लगाते-लगाते उसकी
एडियाँ घिस जाती हैं और अंत में वह थक हार कर या तो खुद को भाग्य के भरोसे छोड़
देता है या दूसरे राज्यों में मजदूरी करने के लिए निकल जाता है. यह परिस्थितियाँ
राज्य के विकास में तो बाधक हैं ही, इनसे किसानों का मनोबल
भी गिरता है.
अखबार
नलकूपों, लिफ्ट
इरिगेशन स्कीमों के काम न कर पाने की व्यवस्था की जांच की मांग करता है ताकि इसके
ताकि इसके लिए दोषी व्यक्तियों को दण्डित किया जा सके और किसानों को ऋण दिए जाने
कि प्रक्रिया को सरल बनाने की मांग करता है.
हम
उम्मीद करते हैं कि अब हमने व्यवस्था में कुछ सुधार जरूर किया होगा. उस समय के
सिंचाई मंत्री ने एक बार विधानसभा में 2017 तक राज्य में पूरी
सिंचाई क्षमता अर्जित करने का दावा किया था. फिर पता नहीं क्या हुआ. 2004
में
बिजली उपलब्ध नहीं थी और तब किसी को इसकी चिंता भी नहीं थी. नलकूपों और लिफ्ट
इरिगेशन के यंत्रों में विद्युत् या मैकेनिकल दोष का अनुमान भी तभी लगता है जब
राज्य में सूखा पड़ता है. सूखा पड़ने के बाद ही सरकार द्वारा पम्प खरीदने के लिए
टेंडर निकालने और मौजूदा पम्पों की मरम्मत का भी एक लंबा इतिहास रहा है. सब कुछ
रहने पर ऑपरेटर को खोज पाना भी बाघिन दुहने से कम मुश्किल काम नहीं होता है. जब तक
यह प्रक्रिया पूरी होती है तब तक खरीफ का मौसम ही बीत जाता है.
आशा है सब कुछ ठीक हो गया होगा. हमारी सरकारें अंग्रेजी की एक कहावत को बहुत मान्यता देती हैं जो कहती है कि, ‘Cross the bridge as you reach there.’ जिसका अर्थ होता है कि पुल को पार करने की चिंता वहाँ पहुँचने के बाद ही करनी चाहिए. हम भी सूखे का मुकाबला तभी करेंगें जब सूखा पड़ जाएगा, उसके पहले चिंता करना बेकार है.