1978 की बाढ़ के बाद बर्धमान
(पश्चिम बंगाल) में मुझे काम करने का मौका मिला था. वहाँ एक बड़ी दुखद घटना सुनने में आई. अजय नदी के किनारे बसे एक
गाँव अठघरा की घटना है. यह गाँव गुस्कुरा प्रखंड में अवस्थित है. अक्टूबर के पहले
सप्ताह में ठीक दुर्गा पूजा के समय 5 तारीख के आसपास नदी में
अचानक बाढ़ आ गई, क्योंकि 2/3
अक्टूबर
को इस इलाके में भीषण वर्षा हुई थी.
इस
गाँव में एक यूथ क्लब था और सुबह शाम यहाँ युवक अड्डा मारते थे और ताश या कैरम आदि
खेलते थे. कभी-कभार कुछ सांस्कृतिक कार्यक्रम का भी आयोजन होता था. उस दिन कुछ
लड़के कैरम खेलने में व्यस्त थे. पास में एक बूढा आदमी, जिसे सारे लड़के दादू कह
कर बुलाते थे, बैठ
कर उनका खेल देख रहा था और बतकही का मज़ा ले रहा था. अचानक शोर हुआ कि ‘ग्रामे बानपानी ढूकचे.’ (गाँव में बाढ़ का पानी
घुस रहा है). लड़कों ने कोई ख़ास तवज्जो नहीं दी औत बूढा आदमी भी बोला कि चिंता मत
करो, खेल
जारी रखो. यहाँ तक पानी आने वाला नहीं है. थोड़ी देर बाद नदी का पानी उस गली में आ
गया जहां लड़के कैरम खेल रहे थे, फिर भी किसी ने ध्यान
नहीं दिया. बूढा भी निश्चिंत था. देखते देखते नदी का पानी उनके क्लब के फर्श तक चढ़
गया, तब
कुछ चिंता हुई सबको हुई पर तय यह हुआ कि यह बाज़ी खत्म करके लोग वहां से हटेंगें.
इसके पहले कि बाज़ी ख़त्म होती पानी उनके क्लब के कमरे में था.
खेल
ख़त्म और सारा सामान अन्दर रख कर लड़के जाने लगे. तब बूढ़े आदमी ने कहा कि मुझे अपने
साथ लेते चलो और इसका मतलब था कि उनको कंधे पर बिठा कर वहाँ से किसी सुरक्षित
स्थान तक ले जाया जाय. लड़कों ने तय किया किया कि दादू को इसी टेबल पर बिठा देते है
और जब पानी कम हो जाएगा तब उनको ले जायेंगें. दादू को भी इस प्रस्ताव से कोई
परेशानी नहीं थी. उन्हें टेबल पर बिठा कर लड़के जैसे तैसे अपने घरों को चले गए और
दादू कमरे की टेबल पर विराजमान हो गए. पानी मगर बढ़ता ही गया और जिस टेबल पर दादू
बैठे थे वह कमरे के अन्दर तैरने लगा. कभी कभी वह क्लब के दरवाज़े से भी जा टकराता
था मगर दादू वहाँ से निकल नहीं सकते थे. निकलते भी कैसे? अन्दर बाहर पानी था और
वह अब अथाह की श्रेणी में आ गया था. शाम होते होते दादू की केवल गर्दन कमरे में
पानी के ऊपर बाकी रह गई थी और वह अपनी ताकत भर टेबल को जकडे हुए थे. गनीमत थी तो
बस इतनी कि कमरे में कुछ कंक्रीट की जाली वाले रोशनदान थे जिनकी मदद से दादू सांस
ले सकते थे. दादू टेबल को जम कर पकडे हुए थे और टेबल पर उनकी पकड़ कम होते ही टेबल
पलट जाती और दादू का काम तमाम हो जाता. दो रातें और एक दिन दादू का इसी तरह बीता
जब पानी घटना शुरू हुआ. पानी घटने के साथ टेबल भी नीचे आना शुरू हुई और दोपहर तक
टेबल के पाए ज़मीन पर आ लगे. दादू टेबल पकड़ कर अभी भी बैठे थे.
लड़के आश्वस्त थे कि दादू तो मर गए होंगें. कुछ लड़कों ने हिम्मत करके क्लब में दादू को देख लिया और वो जिंदा थे मगर इतने समय तक पानी में रहने के कारण उनका शरीर फूल गया था. लड़कों ने शोर मचाया तो बहुत से लोग इकठ्ठा हुए और उनको कुछ गरम चाय मंगा कर पीने को दी गई. जगह-जगह से सूखी लकड़ी का इंतजाम किया गया क्योंकि सब कुछ पानी में डूब जाने के कारण लकड़ी दुर्लभ हो गयी थी. आग जला कर दादू को सेंका गया तब उनकी हालत में कुछ सुधार हुआ और उनका फूला बदन भी कुछ कम हुआ.
गाँव
के लोगों ने मुझे बाद में बताया कि दादू तीन दिन ज़िंदा रहे और फिर सिधार गए. ऐसे
कितने लोग इन विपरीत परिस्थितियों में पानी में फंसे होंगें उसका कोई हिसाब नहीं.
सबसे ह्रदय विदारक दृश्य में एक अनजान पति-पत्नी कमर में हाथ डाले हुए एक दूसरे को
जकड कर बाढ़ में बह गए और उनकी लाश गाँव के किनारे लगी. सरकारी सूचना के अनुसार उस
साल करीब 1600 लोग बंगाल में बाढ़ में मारे गए थे और बहुत ज्यादा संपत्ति का
नुक्सान हुआ था. पीड़ित लोगों का मानना था कि बारिश तो अपनी जगह थी, मगर सबसे ज्यादा
नुकसान DVC के बांधों के कारण हुआ था. सरकार हर बार की तरह यह बयान देती रही
कि अगर DVC के बाँध नहीं होते तो और भी ज्यादा लोग मरे होते और नुक्सान और भी
ज्यादा हुआ होता. सरकारें इसी तरह अपना बचाव करती आई हैं.