24 फ़रवरी 1897 को कोलकाता में भारत सरकार सचिवालय के वरिष्ठ अधिकारियों की एक बैठक हुई जिसमें पिछले दो वर्षों में कोसी घाटी में बाढ़ से हुये नुकसान की समीक्षा की गई और स्थानीय अधिकारियों, नील उत्पादकों और रेलवे प्रशासन द्वारा किये गये अध्ययन और सर्वेक्षण पर चर्चा की गई। “प्रस्तावित परियोजना की सफलता पर सन्देह व्यक्त किया गया और यह भी कहा गया कि परियोजना बहुत महंगी है। यह तय पाया गया कि बहुत सी धाराओं में बहने वाली और ऊँची-ऊँची पेटी वाली इस महान नदी को काबू में लाना एक टेढ़ी खीर है। इस पर छोटे-छोटे टुकड़ों में तटबन्ध बनाकर स्थानीय क्षेत्रें की सुरक्षा का उपाय मात्र ही किया जा सकता है।”
इस सम्मेलन के बाद, ऐसा लगता है, नेपाल से सम्पर्क किया गया और वहाँ के तत्कालीन प्रधानमंत्री सर बीर शमशेर जंग ने इस बात की पुष्टि की कि नेपाल को चतरा में किये जाने वाले किसी काम पर कोई आपत्ति नहीं है और वह हर तरह से इस काम में सहयोग देगा। नेपाल ने इतना जरूर कहा था कि इस तरह के किसी निर्माण की वज़ह से चतरा में ज़मीन का कोई हिस्सा डूबना नहीं चाहिये और बराहक्षेत्र मंदिर को किसी तरह कोई नुकसान नहीं पहुंचना चाहिये। इसी सन्दर्भ में 6 मार्च 1897 के नेपाल के रेजि़डेन्ट कर्नल वायली के लिखे एक पत्र से अन्दाज़ा लगता है कि यह प्रयास पिछले दो वर्ष से चल रहा था परन्तु इतना सब होने के बावजूद पता नहीं क्यों कोई भी काम नहीं हुआ और प्रस्ताव धरा का धरा रह गया।
कोलकाता सम्मेलन में क्योंकि यह कहा गया था कि स्थानीय क्षेत्रें को बचाने के लिए छोटे तटबन्ध बनाये जा सकते हैं इसलिए स्थानीय अधिकारियों तथा निलहे गोरों द्वारा जगह-जगह पर लगभग पूरे उत्तर बिहार में तटबन्धों के निर्माण की बाढ़ आ गई मगर इनको बनाने के बाद कोई चैन से बैठा हो, वैसा कभी सुनने को नहीं मिला।
बाढ़ और उसे जुड़ी यह सारी जानकारी डॉ दिनेश कुमार मिश्र के अथक प्रयासों का नतीजा है।