कोसी परियोजना पर पुनर्विचार की आखि़री कोशिश
कोसी परियोजना और उसके तटबन्धों की अनुपयोगिता पर सरकार का आखि़री बार दरवाज़ा खटखटाने की ग़रज़ से बेतिया राज के सेवा निवृत्त चीफ़ इंजीनियर राय बहादुर ए- जी- चटर्जी ने बिहार के मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह की अध्यक्षता में हुई एक गोष्ठी में एक प्रस्ताव रखा जिसमें 1953 वाली तटबन्धों की मदद से कोसी को नियंत्रित करने की योजना को सार्वजनिक पैसे की बरबादी बताया और यह कहा कि तटबन्धों से किसी का भी भला नहीं होगा। 20 नवम्बर 1954 को हुई इस मीटिंग में बिहार के मुख्य सचिव, रिलीप़फ़ कमिश्नर, चीफ़ इंजीनियर सहित राज्यके सभी आला अफ़सर मौजूद थे।
उन्होंने एक बार फिर सब को याद दिलाया कि सारी समस्या जल-निकासी के मार्ग में आई बाधाओं की है, बाढ़ की नहीं और इसका समाधान नदी पर बड़े बांध बना कर तथा इसकी धाराओं की उगाढ़ी कर उनकी पानी बहाने की क्षमता बढ़ाने में है। इस समय बिहार के प्रशासनिक और राजनैतिक तंत्र में इस तरह के विचारों का कोई ख़रीदार नहीं बचा था। इसके अलावा करीब 300 गाँव कोसी तटबन्धों के बीच फंसने जा रहे थे जिनके बारे में सरकार की ओर से न तो कोई साप़फ़ नीति बनी थी और न ही कोई स्पष्ट आश्वासन लोगों को मिला था कि उनकी समस्याओं का निदान होगा। ऐसे लोग स्वाभाविक रूप से तटबन्धों का विरोध कर कहे थे।
कोसी की वह सारी त्रासदी जो कि छिट -पुट तौर पर पूरे इलाके पर फैली थी वह अब कैपसूल की शक्ल में इन्हीं लोगों के हिस्से में पड़ने जा रही थी। कोसी तटबन्ध जहाँ कुछ गाँवों को बाढ़ से सुरक्षा देने जा रहे थे वहीं इन गाँवों में हमेशा-हमेशा के लिए बाढ़ की गारन्टी दे रहे थे। मगर राजनीतिज्ञों ने इसका हल भी दूंढ़ लिया।
पटना सचिवालय के सभा भवन में 2 दिसम्बर 1954 को भारत सेवक समाज के कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुये ललित नारायण मिश्र ने बताया कि हाल ही में पूना प्रयोगशाला में किये गये मॉडेल परीक्षणों से पता लगता है कि तटबन्धों के बीच फँसने वाले गाँवों में 25,510 क्यूमेक प्रवाह पर बाढ़ के लेवेल में मात्र 10 सेन्टीमीटर (चार इंच) की ही अतिरित्तफ़ बढ़ोतरी होगी। इस साल बरसात में कोसी में केवल 21,260 क्यूमेक (7-5 लाख क्यूसेक) पानी आया था इसलिए पुनर्वास की समस्या उतनी गंभीर नहीं है।
इस सभा में गुलजारी लाल नन्दा, तत्कालीन केन्द्रीय योजना मंत्री भी मौजूद थे। मिश्र के इस कथन का समर्थन 1956 में पूना प्रयोगशाला ने अपने परीक्षण के परिणामों से कर दिया और कहा कि यह पाया गया कि तटबन्धों के निर्माण की वज़ह से इन गाँवों में पानी के लेवेल में व्यावहारिक रूप से कोई वृद्धि नहीं होगी। प्रयोगशाला का यह शोध बाद में तटबन्ध पीडि़तों के साथ एक बड़ा ही भद्दा मज़ाक साबित हुआ। अगर ललित नारायण मिश्र और पूना प्रयोगशाला के बयानों तथा तटबन्ध पीडि़तों के बयानों को साथ-साथ रखा जाय तो किस पर यक़ीन किया जाय, यह फ़ैसला करना मुश्किल होगा।
शक़ इस बात पर है कि किस ने किस को प्रभावित किया। कोसी पर तटबन्धों का निर्माण करने के लिए आतुर नेताओं ने पूना प्रयोगशाला को प्रभावित किया या पूना प्रयोगशाला ने इन नेताओं को सूचना दी ? मिश्र का बयान 1954 में दिया गया था जबकि पूना प्रयोगशाला की रिपोर्ट 1956 की है। बहुत मुमकिन है कि राजनैतिक दबाव के कारण पूना प्रयोगशाला की रिपोर्ट में हेरा-फेरी हुई हो। मिश्र के आश्वासन को जबर्दस्त पब्लिसिटी मिली और उनके इस बयान का खोखलापन उनके प्रभाव के सामने टिक नहीं पाया।