निर्मली सम्मलेन 6 अप्रैल 1997 को समाप्त हो गया था. अगले दिन हम सभी लोग वहाँ से निकलने वाले थे. मेरे एक मित्र अपनी गाडी लेकर निर्मली आये थे. मैंने उनसे आग्रह किया कि क्या अग्रवाल साहब को मैं उनकी गाडी से घोंघेपुर तक आपके साथ चल सकता हूँ. वहाँ थोड़ी देर बिता कर हमलोग पटना चले जायेंगें. उन्होनें हामी भरी और मैं, प्रोफ़ेसर अग्रवाल, अहमदाबाद से आये एक मित्र जी. के. भट्ट उनकी गाडी में बैठ कर घोंघेपुर के लिए निकल गए.
घोंघेपुर सहरसा जिले में कोसी के पश्चिमी तटबंध के एक दम अंत पर स्थित है और मेरे पास कोई भी परिचित बाढ़ समझाने के लिए आता था तो उसे मैं घोंघेपुर जरूर ले जाता था. ऐसा क्या रखा है घोंघेपुर में, यह सवाल हर कोई पूछता था. मैं कहता था कि अगर आप बाढ़ नियंत्रण का मखौल देखना चाहते हैं तो आप को जीवन में एक बार घोंघेपुर जरूर जाना चाहिए.
कोसी का पश्चिमी तटबंध यहाँ अकारण समाप्त हो जाता है जिसका परिणाम यह होता है कि बाढ़ के समय तटबंध के आखिरी किनारे से नदी का अधिकांश पानी तो सीधे खगड़िया जिले की तरफ आगे चला जाता है लेकिन नदी के पानी का अच्छा ख़ासा हिस्सा मुड़ कर तटबंध की कंट्री साइड में वापस लौटता है और तब तक पीछे की ओर जाता है जब तक उसका लेवल ज़मीन के बराबर न हो जाए. यह पानी रास्ते में पड़ने वाले सभी गावों को डुबाता हुआ जाता है. इसके अलावा कोसी के पश्चिम से एक अन्य नदी, कमला, इसी इलाके में दक्षिण पूर्व दिशा में बहती हुई प्रवेश करती है. कोसी का बैकवाटर, कमला का सीधे आता हुआ पानी दोनों नदियों के बीच के क्षेत्र की हालत को और भी ज्यादा बिगाड़ता है. जैसे इतना ही काफी नहीं था, दक्षिण में एक तीसरी नदी, बागमती, का पानी भी इस क्षेत्र में आता है. बागमती इस इलाके में प्रायः पश्चिम से पूरब की दिशा में बहती है और काफी दूर तक बहने के बाद कोसी में मिल जाती है.. इस नदी पर भी दोनों तरफ तटबंध बने हुए हैं मगर इस स्थान विशेष पर नदी का बायाँ तटबंध नहीं बना है और इस गैप से बरसात में पानी उसी जगह भरता है जहां कोसी और कमला का पानी पहले से ऊधम मचा रहा होता है. तब बरसात के मौसम में इस पूरे इलाके में नदियों का जो पानी इकठ्ठा होता है उसे निकलने में महीनों का समय लग जाता है. बिहार में अगर ज़बरदस्त सूखा पड़े तभी इस इलाके में रबी की फसल होती है. खरीफ का तो इन परिस्थितियों में सवाल ही नहीं उठता. ऐसा 1972 और और 1992 में हुआ भी था. इन दोनों वर्षों में बिहार में जानलेवा सूखा पड़ा था. इनमें से 1972 शायद बीसवीं सदी का अकेला वर्ष है जिसमें बिहार में एक भी आदमी की मृत्यु बाढ़ में नहीं हुई थी. मैं चाहता था कि प्रोफ़ेसर अग्रवाल से मैं जानू कि यहाँ बाढ़ से निपटने कि क्या संभावनाएं बनती हैं?
घोंघेपुर पहुँचने के बाद जब मैंने उन्हें सारी परिस्थिति समझाई तब वह काफी गुस्से में थे. उन्होनें कहा कि लोग ऐसा कर के निकल जाते हैं और उन पर कोई कार्रवाई नहीं होती. अप्रैल का महीना था और कहीं कोई फसल का नामोनिशान नहीं था. दूर कहीं कुछ पीला पीला खेत दिखाई पड़ता था. गाँव वालों ने बताया कि जहां से पानी निकल गया है वहाँ के किसान अब सूर्यमुखी की खेती करने लगे हैं. मैंने उन्हें बताया कि एक बार 1993 में कलकत्ता की एक संस्था ने आपदा प्रबंधन पर एक सप्ताह का कोर्स आयोजित किया था और पता नहीं क्यों मुझे इसमें भाग लेने के लिए आमंत्रित किया था. संस्था ने मुझे बताया था कि कोर्स का संचालन इस विषय के जाने-माने आपदा प्रबंधन के विश्व स्तरीय विशेषग्य ऑक्सफ़ोर्ड पॉलिटेक्निक के प्रोफ़ेसर इयान डेविस करेंगें. मैं बिहार की बाढ़ को अभी भी आपदा नहीं मानता क्योंकि यह पूरी तरह मानव निर्मित है और मैं उन महामानवों के नाम भी जानता हूँ जिनकी वजह से यहाँ की चिर-प्रतीक्षित बाढ़ आपदा में परिवर्तित हुई है. मैंने आयोजकों को लिखा कि मैं आपकी आपदा प्रबंधन गोष्ठी में जरूर शामिल होऊंगा लेकिन मेरी शर्त है कि आप एक दिन के लिए प्रोफ़ेसर डेविस को मेरे साथ घोंघेपुर दिखाने की व्यवस्था कर दें. संस्था इस बात के लिए राज़ी हो गयी और प्रोफ़ेसर डेविस पटना पहुँच गए. मैं उन्हें झंझारपुर ले आया जो मधुबनी जिले का एक सब-डिविज़नल मुख्यालय है और यहाँ सरकार का गेस्ट हाउस भी है. यह नवम्बर का महीना था. यहाँ से घोंघेपुर जाना आसान था.
दूसरे दिन मैं अपने दो-एक साथियों के साथ प्रोफ़ेसर डेविस के साथ कोसी के पश्चिमी बाँध पर घोंघेपुर के लिए रवाना हुआ. रास्ते में वह मुझसे कोसी और कमला बाढ़ नियंत्रण योजना के बारे में सवाल पूछते रहे, समस्या के बारे में पूछते रहे और मैं अपनी सामर्थ्य भर सारी बातें उन्हें बताता गया. जब हम लोग पश्चिमी कोसी तटबंध के अंतिम छोर पर घोंगेपुर पहुंचे तब मैंने उन्हें एक तरफ कोसी का बैकवाटर और दूसरी ओर से कमला का कोसी की तरफ आता हुआ पानी दिखाया. बागमती नदी तो वहाँ से दूर थी मगर उसका पानी वहाँ मौजूद था. यहाँ खड़े होकर मैंने उनसे कहा कि प्रोफ़ेसर डेविस! आपने तो बहुत दुनिया देखी है, एक से एक बढ़ कर डिजास्टर देखे होंगें. आप मुझे इस जगह एक गिलास पीने के पानी का कैसे इंतज़ाम हो सके वह बता दीजिये. प्रोफ़ेसर आसमान की तरफ देखते रहे और कुछ सोच कर मुझ से बोले, “Mishra! This is beyond redemption." ("मिश्रा! यह लाइलाज मर्ज़ है.”) मेरा जवाब था कि चलिए, अब हम आपसे डिजास्टर मैनेजमेंट कि ट्रेनिंग लेने के लिए कलकत्ता चलते हैं.
अग्रवाल साहब पूरी कहानी ध्यान पूर्वक सुनते रहे. फिर कुछ सोच कर कहा कि वो केन्द्रीय जल संसाधन मंत्रालय और केन्द्रीय जल आयोग के कुछ वरिष्ठ अधिकारियों को लाकर यह जगह दिखा सकते हैं और उसके बाद एक सेमिनार करेंगें कि यहाँ क्या किया जा सकता है. "लेकिन वो जो निर्मली में तुम्हारे साथी थे वह बड़े उग्र थे. उनको क्या तुम नियंत्रित कर पाओगे?"
मैंने उन्हें बताया कि उनमें से बहुत से लोग कोसी और कमला नदी के तटबंधों के बीच में फंसे लोग थे और उनका गुस्सा वाजिब था. कोसी अपनी बहुत सी धाराओं से होकर बहा करती थी उसे हम लोगों ने तटबंधों के बीच में सीमित कर दिया और इन तटबंधों के बीच 380 के आसपास गाँवों की लगभग दस लाख की आबादी (1997 में, अब यह आबादी 15 लाख के आसपास होगी) फँस गयी. कोसी का सारा पानी अब हर साल इन लोगों के ऊपर से गुज़रता है और उनकी कोई कहीं सुनवाई नहीं होती. पुनर्वास दिया गया मगर खेती उन्हें तटबंधों के अन्दर आकर अपनी पुश्तैनी ज़मीन पर ही करनी थी. तटबंधों के बाहर जहां उन्हें पुनर्वास दिया गया वहाँ रह कर इतना दूर आकर खेती करना व्यावहारिक नहीं था तो यह लोग वापस अपनी ज़मीन पर लौट आये. कालांतर में पुनर्वास वाली ज़मीन पर भी बहुत सी जगहों में जल-जमाव हो गया तब उसकी वजह से भी लोग अपने गाँव वापस लौट आये. उनका गुस्सा अकारण नहीं है. तटबंधों के बीच कोसी की बंधी धारा का उत्पात बढ़ गया और लोगों को रोजी-रोटी कि तलाश में बाहर जाना पड़ा. वह चुप रह गए.
शाम को पटना लौट कर मैंने उन्हें रेलगाड़ी से वापस जाने के लिए विदा किया.