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डॉ. जी.डी. अग्रवाल और मैं : भाग – 3

  • By
  • Dr Dinesh kumar Mishra
  • October-25-2018

अगले दिन की यात्रा शुरू हुई अलवर से. इस जिले के तीन भौगोलिक भाग हैं. मध्य पर्वतीय भाग, पूरब के पठार और पश्चिम का रेतीला हिस्सा. जिले की तीन बड़ी नदियाँ हैं बाणगंगा, रुपारेल और साबी. जिले में पानी को संग्रह करने के लिए बहुत से बाँध बनाए गए थे, पहले रियासतों द्वारा और आज़ादी के बाद सरकार द्वारा भी. इन बांधों में जयसमंद, सीलिसेढ, मंगलसर, मानसरोवर, हंससरोवर आदि मुख्य हैं. इस साल जून महीने के अंतिम सप्ताह में अचानक भारी वर्षा हुई नदियों में पानी की अभूतपूर्व आमद से इन बांधों का एक-एक कर के टूटना शुरू हुआ और नीचे के क्षेत्रों में भारी तबाही हुई. सबसे पहले अलवर के के सिंचाई विभाग जाकर हम लोगों ने जून महीने के वर्षापात के आंकड़े जानने चाहे. विभाग के जितने लोगों से मुलाक़ात हुई वह सब देश के बाकी जगहों की तरह यह आंकड़ा क्यों चाहिए, क्या करेंगें इसका, अक्टूबर महीने में क्या जरूरत पड़ गयी जबकि जो कुछ होना था वह तो जून महीनें में हो गया था, वगैरह वगैरह जैसे सवाल पूछते थे. बाध्य होकर भाई साहब को अपना रूप दिखाना पड़ा तब विभाग के लोग थोडा नर्म पड़े और हम लोगों को एक क्लर्क के हवाले कर दिया और जैसे-तैसे आधा दिन बर्बाद करने पर वर्षापात का दैनिक आंकड़ा मिला जिससे अंदाजा लगा कि जून के आखिरी हफ्ते में यहाँ सारे साल में जितनी सामान्य वर्षा होती है उसके लगभग ढाई गुना बारिश हुई और इसमें एक दिन में 380 मि.मी. तक वर्षा शामिल थी. यह शायद 23 या 24 जून का दिन था जब इतना पानी बरसा था. इस अप्रत्याशित और सघन वर्षा ने जिले का नक्शा बदल दिया.

अधिकाँशतः बलुआही मिटटी में मजबूती के लिहाज से वैसे भी कोई जान नहीं होती. बांधों को तोड़ता हुआ पानी जब पहाड़ों की तरफ से नीचे आना शुरू हुआ तो उसने सडकों और और घरों को अपनी चपेट में ले लिया जिससे आवाजाही पर बहुत ही बुरा असर पड़ा और मिटटी के बने जो भी घर थे वह या तो ज़मींदोज़ हो गये थे या उनका थोडा बहुत हिस्सा बाकी बचा था जो किसी भी सूरत से रहने लायक नहीं था. बर्तन-भांडे, बिस्तर-बिछावन, बच्चों की किताब कापियां सब कुछ बह गया था. जानवर कितने मारे गए या बह गए उसका कोई अंदाजा उस समय (अक्टूबर) तक नहीं लगा था. बाढ़ में मारे गए या लापता हुए लोगों की गिनती भी अभी तक पूरी नहीं हुई थी. बहुत से पेड़ों को बाढ़ के पानी ने जड़ से उखाड़ दिया था. रेतीले गाँवों की त्रासदी यह भी थी कि जब उनके ऊपर से बाढ़ का पानी गुज़रा तो जहां नाले नहीं थे वहां नाले बन गए और जितने भी छोटे-छोटे नाले थे वह चौड़े और गहरे होते गए. गाँवों का भूगोल बदल गया था और रास्तों के बारे में तो कहना ही नहीं था क्योंकि नए पैदा हुए नाले और पुराने बड़े नालों पर जब तक पुल-पुलिया नहीं बनेगी तब तक बाहरी दुनिया से उनका संपर्क हो ही नहीं सकता था. संपर्क टूटने से न तो बाढ़ पीड़ित खुद कहीं जा सकते थे और न ही कोई उनकी मदद के लिए उन तक पहुँच सकता था. खरीफ की जो भी फसल थी वह नेस्त-नाबूद हो चुकी थी. गाँव वापस आ गए लोगों के पास गाँव तो था मगर घर नहीं था. बदन पर जो कपडे बचे थे वही उनका पहनावा था. जलावन की लकड़ी और पशु-चारा किसी के पास नहीं था. कुछ स्वयंसेवी संस्थाओं ने कहीं कहीं स्टोव और मिटटी के तेल की व्यवस्था कर दी थी तो उनको थोड़ी बहुत राहत पहुँच गयी थी. सरकार अपने तरीके से सक्रिय थी. उसके कर्मचारियों को भी सामान्यतः इस तरह की परिस्थिति से कभी सामना नहीं पड़ा था. दफ्तर में बर्बाद हुए समय और यह सारी विनाश लीला देखते-देखते दिन ढलने को आने लगा था. हम लोगों ने जिस किसी से भी रास्ते में बात की वह यही कहता था की ऐसा विनाश उसके जीवन में कभी नहीं देखा था. हमारे यहाँ तो इस कदर पानी बरसता ही नहीं है. थोड़ी सी भी आहट मिल गयी होती तो हम लोग अपना कुछ न कुछ इंतजाम जरूर कर लेते.

राजेन्द्र सिंह जी हम लोगों को अलवर जिले के रामगढ़ क्षेत्र के एक ऐसे ही बांधोली गाँव में ले गए. यह गाँव पूरा का पूरा बाढ़ के पानी से बह गया था. बचा था तो सिर्फ एक मंदिर और एक पक्का घर. उस गाँव की हालत ऐसी ही थी जैसे अपने यहाँ कोसी, गंडक, बागमती या महानंदा नदी के तटबंधों के बीच किसी गाँव की होती है जिसके ऊपर से नदी का पानी बह गया हो. यहाँ केवल बांसों के झुरमुट बचते हैं और ज़मीन एकदम परिष्कार-परिछन्न, जिसके ऊपर नदी के पानी के बहने वाली धारा के लहराते अवशेष ही दिखाई पड़ते हैं. लगभग वैसी ही स्थिति राजस्थान के उन गाँवों की थी जसमें बांधोली भी एक था. इस गाँव में सिक्खों की एक अच्छी खासी आबादी थी और एक गुरुद्वारा भी वहाँ था मगर बाढ़ ने उसका नामो-निशान मिटा दिया था. उसकी नींव के पत्थर ही उसके होने की गवाही देते थे. मेहनती सिक्खों को हमने कभी इतना असहाय नहीं देखा था. राजेन्द्र सिंह जी की संस्था तरुण भारत संघ ने यहाँ राहत का अच्छा काम किया था. यह बात अलग थी कि उन्हें यहाँ पहुँचने में अच्छी खासी मुसीबतों का सामना करना पड़ा था.

गाँव के लोगों से लम्बी बातचीत हुई और मैंने अपनी बिहार की पृष्ठभूमि के सन्दर्भ में संघर्ष करने की बात पर अच्छा खासा भाषण दे डाला था पर धीरे-धीरे मुझे लगा कि वह लोग उससे कुछ ख़ास प्रभावित नहीं थे. वह इतने वर्षों में हुई इस घटना को यह लोग आपदा मान कर अपने पैरों पर खडा होने की तैयारी कर रहे थे. बाढ़ की समस्या यहाँ बिहार की तरह सतत समस्या नहीं थी और एक आकस्मिक घटना के तौर पर ही समझने की उनकी प्रस्तुति थी. राजेन्द्र सिंह जी की संस्था ने इस गाँव में रिलीफ का काम किया था और यह जारी भी था. ग्रामीणों की अपेक्षा और अधिक मदद पाने की थी, उन्हें मेरी बातों में कोई ख़ास दिलचस्पी नहीं थी. बाद में अग्रवाल साहब ने मुझे कहा कि हर जगह हर समाधान लागू किया नहीं जा सकता. दिक्कत यह है कि हमारे ग्रामीण परिवेश के लोग कितनी भी मतभिन्नता आप के साथ रखते हों, वह कभी आप को इसका एहसास नहीं होने देंगें क्योंकि आप उनके अतिथि हैं और अतिथि की शान में कोई गुस्ताखी हमारी संस्कृति में नहीं है. मुझे यह भी लगा कि जब हम लोग अपने गाँवों बाढ़ की समस्या पर विचार करने के लिए बैठते हैं तब भी शायद यही माहौल होता होगा जिसे हम ताड़ नहीं पाते. ख़ुशी की बात सिर्फ इतनी ही है कि हमारे यहाँ संघर्ष की धारा अभी मृत नहीं हुई है भले ही रिलीफ बांटने वालों ने उसकी धार बहुत ज्यादा कुंद कर दी है. सर्वमान्य नेतृत्व का अभाव हमारी दूसरी समस्या है. शाम होने के बाद हम लोग वापस तरुण भारत संघ के मुख्यालय थानागाजी लौट आये.

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