बाद में तय यह
हुआ था कि मैं, अग्रवाल साहब और
लुन्कड़ साहब और राजेन्द्र सिंह जी मथुरा में मिलेंगें और रात भर वहाँ रह कर पहले
दूसरे दिन सुबह मथुरा के आसपास का बाढ़ क्षेत्र देखने के लिए चलेंगें. साहिबी नदी
का कार्यक्रम एक दिन बाद होगा. मैं जमशेदपुर से मथुरा आ जाऊँगा. यहाँ से उत्कल
एक्सप्रेस एक गाडी थी जो सीधे मथुरा तक जाती थी. मैं उसमें सवार हो गया और यह गाडी
शाम को 6 बजे के आस पास मथुरा
पहुंचती थी. राजेन्द्र सिंह जी किसी कारणवश मथुरा आ नहीं पाए मगर भाई साहब
(अग्रवाल साहब) और डॉ. लुन्कड़ शाम को मथुरा में निर्दिष्ट होटल में पहुँच गए थे.
मेरी गाडी लेट होती जा रही थी. लुन्कड़ साहब मुझे पहचानते नहीं थे. बचे प्रोफ़ेसर
अग्रवाल जिन्होनें पहल की कि वह मुझे पहचानते थे अतः स्टेशन से मुझे ले आयेंगें और
वह शाम को मथुरा स्टेशन मुझे ले जाने के लिए आ गए. मेरी गाडी मथुरा अगले दिन सुबह
पौने तीन बजे पहुंची और भाई साहब स्टेशन से डिगे नहीं. मुझे इस व्यवस्था का पता
नहीं था क्योंकि उन दिनों चलती ट्रेन से संपर्क करने का कोई साधन भी नहीं था.
मथुरा उतर कर मुझे यह भी नहीं पता था कि मुझे जाना कहाँ है. तभी गेट पर भाई साहब
दिखाई पड़े. उस वक़्त सुबह का तीन बज रहा होगा. उन्हें देख कर मुझे बड़ी तसल्ली हुई
कि मेरी चिंता मिट गयी. उनसे पूछा कि आप को पता था कि ट्रेन लेट है. उनका कहना था
कि वह तो शाम से ही आ गए थे और तबसे यहाँ बैठे हैं. मैंने अपने आपको बहुत छोटा
महसूस किया कि मेरी वजह से उन्हें इतनी तकलीफ उठानी पड़ी. जैसे तैसे हम दोनों होटल
आये और थोडा सोये.
सुबह राजेन्द्र सिंह जी भी आ गए और फिर नाश्ते के बाद चलने की तैयारी हो गयी. मथुरा से कुछ दूर जाने के बाद वही पानी दिखाई पड़ने लगा जिसे देखने की मेरी आदत थी. वैसे ही बाढ़ के पानी में डूबे हुए पेड़ जिनकी सिर्फ फुनगी दिखाई पड़ती थी. पानी से घिरे हुए गाँव. उधर के गाँव आम तौर पर ऊंचाई पर बसे हुए रहते हैं. मेरा पहले मानना था कि ऐसा बाहरी हमलों से बचने के लिए होइता होगा पर अब लग रहा था कि हो न हो बाढ़ की वजह से तरीका लोगों ने अख्तियार किया हो. लेकिन सडकों पर लोग नहीं थे. शायद वो यहाँ तक पहुँच ही नहीं पाए. बरसात में आदमियों और जानवरों से भरी सड़कें देखना आम बात है जिनके बीच से गाडी निकाल कर आगे बढ़ाना किसी कमाल से कम नहीं होता. राहत माँगने वालों की भीड़ यहाँ नहीं थी मगर बाकी सब हमारे यहाँ जैसा ही था. पेड़ों की फुनगी से ही अंदाजा लगता था कि पानी वहाँ कितना गहरा होगा. डॉ. लुन्कड़ ने एक शोध पत्र लिखा था अग्रवाल साहब से मिल कर जिसमें पिछले सौ साल के वर्षा के आंकड़े थे. उन आंकड़ों के अनुसार उन्होनें मुझे बताया कि मथुरा, गोकुल, वृन्दावन का यह इलाका देश में सर्वाधिक वर्षा का क्षेत्र माना जाता है पर यह घटना हर साल नहीं होती. कभी कभी ही होती है. लगातार हर वर्ष बारिश होने से नाम चेरापूंजी का होता है. वह शोधपत्र मेरी फाइलों में अभी भी होगा. तब बात चली कि भगवान् कृष्ण द्वारा गोवर्धन पर्वत को उंगली पर उठा लेने की बात विवादास्पद हो सकती है पर यहाँ हुई वर्षा पर कोई विवाद नहीं है.
तब मुझे याद आया कि महाभारत में इस घटना का ज़िक्र है और तब कृष्ण ने इंद्र के प्रकोप से प्रजा की रक्षा के लिए गोवर्धन पर्वत को अपनी एक ऊँगली पर उठा लिया था. यादवों से कहा था कि जिसके जैसे समूह हों और जैसी आवश्यकता हो (यथा सारम यथा यूथम ) उसके अनुरूप वह इस पहाड़ के नीचे आश्रय ले लें. मुझे लगा कि गोवर्धन शायद भारत के इतिहास में पहला फ्लड शेल्टर रहा होगा जिसमें जरूरत के हिसाब से दखल करने का प्रावधान था. रास्ते में हम लोग एक नदी के बगल से गुज़रे. भाई साहब ने मुझसे पूछा कि इसमें कितना प्रवाह होगा इस समय? मैंने अंदाज़न जो कुछ भी समझ में आया उन्हें बताया उन्होनें चुटकी ली और कहा कि तुम लोग स्ट्रक्चरल इंजिनियर हो न, बिल्डिंग नापते-नापते आसमान का अंदाजा नहीं लगा पाते हो. खुले आसमान में दूरी का अनुमान करने के लिए अभ्यास चाहिए. आगे से नज़र रखना. मैं उन्हें बिहार के बाढ़ क्षेत्र के बारे में बताता रहा और वह मुझे बाढ़ से निपटने की तय्यारी के गुर बताते गए. शाम को अँधेरा होने तक हम लोग थाना गाजी पहुंचे होंगें राजेन्द्र सिंह जी की संस्था पर.
रात्रि भोजन के बाद भाई साहब ने कुछ सर्वे के नक्शे निकाले और खुद ज़मीन पर बैठ कर उन्हें बिछा दिए. मैं खड़ा-खडा सब देख रहा था. अचानक एक नक्शे पर हाथ रख कर उन्होनें मुझसे पूछा कि यह जो नदी यहाँ दिखाई पड़ रही है वह किधर से किधर बह रही है. उनकी शर्त थी कि मैं बैठूंगा नहीं. वहीं से खड़े-खड़े नदी की दिशा बतानी होगी. मैंने काफी सोच समझ कर उन्हें बताया कि यह जो बीच वाली लाइन है जो ऊपर की ओर जा रही है वह तो निश्चित रूप से नदी है और जो अगल-बगल से धाराएं उसमें आकर मिल रही हैं वह उसकी सहायक धाराएं हैं. उनका आदेश हुआ कि अब बैठो और फिर बताओ. बैठने के बाद मैं नक्शे पर कंटूर देख सकता था और तब उनसे कहा की भाई साहब! यह तो उल्टा हो रहा है. जिसे मैं नदी की सहायक धारा बता रहा था वह नदी से निकली हुई ओफ्फशूट्स मालुम पड़ती हैं. हो सकता है कि यह नदी से नहरें निकाली हुई हों. और जो नदी का उदगम लग रहा था उसके आगे तो नदी दिखाई ही नहीं पड़ती है. वह मुस्कुराए और बोले की ठीक ऐसा ही हुआ है.
उन्होनें बताया की यह साहिबी नदी है जिससे दोनों तरफ मिला कर 27 नहरें निकाल कर नदी की हत्या कर दी गयी है. जिसे तुम उदगम समझ रहे थे वहाँ नदी समाप्त हो जाती है, उसका कोई वजूद नहीं बचता. सिंचाई के लोभ में नदी को नदी रहने ही नहीं दिया. अब अगर भारी वर्षा हो जो कि इस साल हुई थी तो नदी का पानी उस इलाके को डुबाने के ही काम आएगा न जिसे आगे बढ़ाने से रोक दिया गया. वही यहाँ हुआ है, इसे देखने के लिए हम कल जायेंगें. अभी तो सब पानी में डूबा हुआ है इसलिए कुछ मालुम नहीं पड़ेगा. अगर पानी घट गया होगा तो नहरों के बन्ध दिखाई पड़ सकते हैं. पर वह इलाका तुम देख सकते हो कि लालच में हम क्या क्या नहीं कर डालते.