प्रोफ़ेसर गुरु
दास अग्रवाल से मेरा परिचय 1992 में बांदा की
बाढ़ के समय हुआ था, जब वह चित्रकूट में वृद्धाश्रम में रहते थे और रिटायर हुए
उन्हें कुछ दिन ही हुए होंगें. उनका नाम तो बहुत सुना था पर खादी का कुर्ता
पायजामा पहने और बड़ी-बड़ी दाढ़ी में छिपा उनका चेहरा देख कर सहसा यकीन नहीं हुआ कि
यह वही शख्स थे जिनके बारे में बहुत कुछ सुन रखा था. एकदम सरल स्वभाव और उससे भी
ज्यादा दोस्ताना सलूक. मेरी बातचीत के दौरान उन्होनें मुझ से पूछा कि इंजीनियरिंग
की पढ़ाई कहाँ की थी? मैंने बताया खड़गपुर. उनका दूसरा सवाल था किस साल में पास किया?
मैंने बताया 1968. अब उनका तीसरा सवाल था उत्तम स्वरुप अग्रवाल को जानते हो?
मैंने कहा हाँ, वह एग्रीकल्चरल
इंजीनियरिंग में था लेकिन दूसरे हॉस्टल में और हम लोगों ने एक ही साल में डिग्री
ली. उन्होनें बताया कि उत्तम स्वरुप मेरा छोटा भाई है. (उत्तम अब इस दुनिया में
नहीं है. पिछले सप्ताह उनका भी देहांत हो गया.) तबसे मैं भी छोटा भाई ही हो गया और
उन्हें भाई साहब ही कहने लगा.
उनसे चिट्ठी
पत्री चलती रही और 1994 में मेरी बंदिनी
महानंदा नाम की पुस्तक प्रकाशित हुई तो मैंने उन्हें उस किताब की एक प्रति
उनको भेजी. कुछ दिनों बाद उनका एक पत्र मेरे पास आया जिसमें उन्होनें किताब की
काफी तारीफ़ की. दो पेज का पत्र था. पत्र के अंत में उन्होनें पुनश्च: कर के एक नोट
जोड़ दिया था. उन्होनें मुझसे कहा कि इसमें तुमने जो कुछ भी लिखा है अगर उससे तुम
पूरी तरह आश्वस्त हो और समझते हो कि लोग तुम्हारा समर्थन करते हैं तो इस एजेंडा को
लेकर एक बार अपनी पसंद के विधानसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ लो. तब तुमको अपनी औकात
पता चल जायेगी. मैं जो उनका पत्र पढ़ कर फूल कर कुप्पा हुआ जा रहा था उस पर घड़ों
पानी फिर गया. उनका कहना था कि जितना आसान इन बातों को समझते हो उतनी आसान वो हैं
नहीं, फिर भी जो तथ्य तुमने इकट्ठा करके लिखे हैं, वह समाज के काम आयेंगें और
इसलिए अपना काम जारी रखो.
उनसे बाद में भी
एक-आध बार हुई और वो इशारा करते थे कि तकनीक अपनी जगह है पर निर्णय प्रक्रिया
राजनैतिक है और वही हम जैसे लोगों की भूमिका को सीमित करती है, इस बात का ध्यान रखना चाहिए. शायद 1995 या 1996 का समय रहा होगा जब राजस्थान में अलवर में भीषण बाढ़ आयी और
राजेन्द्र सिंह जी का मेरे पास बुलावा आया कि एक बार अलवर आ जाइए और यहाँ की बाढ़
देख कर जाइए. मैं 1980 में जयपुर की बाढ़
देख चुका था और वहाँ कुछ समय भी बिताया था. मुझे लगा कि एक तो राजेन्द्र सिंह जी
का निमंत्रण और रेगिस्तान में बाढ़ देखने का मौक़ा फिर मिले न मिले, अलवर जाना चाहिए और मैं वहाँ गया. अलवर प्रवास
में मुझे बोनस के तौर पर प्रोफ़ेसर अग्रवाल और उनके शिष्य डॉ. श्रेणिक लुन्कड़ से
मुलाक़ात हुई. लुन्कड़ साहब को मैं पहले से नहीं जानता था. वह भूगर्भ शास्त्री है और
कानपुर आईआईटी में उनके शिष्य
रह चुके थे और उस समय कुरुक्षेत्र में अध्यापन कर रहे थे. डॉ. लुन्कड़ ने फ्रांस से
पीएच.डी की हुई थी, इस तरह से राजेन्द्र सिंह के मेहमानों में सबसे कम शिक्षित मैं
ही था, जिसकी पढ़ाई लिखाई एम.टेक पर सील हो गयी थी. दूसरे दिन हम लोगों को बाढ़
क्षेत्र के भ्रमण पर जाना था और भरतपुर जिले में साहिबी नदी के इलाके में जाना तय
हुआ.